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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 55/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ऐभि॑र्ददे॒ वृष्ण्या॒ पौंस्या॑नि॒ येभि॒रौक्ष॑द्वृत्र॒हत्या॑य व॒ज्री । ये कर्म॑णः क्रि॒यमा॑णस्य म॒ह्न ऋ॑तेक॒र्ममु॒दजा॑यन्त दे॒वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ए॒भिः॒ । द॒दे॒ । वृ॒ष्ण्या॒ । पौंस्या॑नि । येभिः॑ । औक्ष॑त् । वृ॒त्र॒ऽहत्या॑य । व॒ज्री । ये । कर्म॑णः । क्रि॒यमा॑णस्य । म॒ह्ना । ऋ॒ते॒ऽक॒र्मम् । उ॒त्ऽअजा॑यन्त । दे॒वाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऐभिर्ददे वृष्ण्या पौंस्यानि येभिरौक्षद्वृत्रहत्याय वज्री । ये कर्मणः क्रियमाणस्य मह्न ऋतेकर्ममुदजायन्त देवाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । एभिः । ददे । वृष्ण्या । पौंस्यानि । येभिः । औक्षत् । वृत्रऽहत्याय । वज्री । ये । कर्मणः । क्रियमाणस्य । मह्ना । ऋतेऽकर्मम् । उत्ऽअजायन्त । देवाः ॥ १०.५५.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 55; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    जिस प्रकार (देवाः) किरण वा वायुगण (क्रियमाणस्य कर्मणः मन्हा) किये जाने वाले कर्म, यज्ञादि के महान् सामर्थ्य से प्रेरित होकर (ऋते कर्मम् उत् अजायन्त) जलों के निमित्त कर्म को करने के लिये उठते और उदित होते हैं जिनसे (वृत्र-हत्याय) मेघको छिन्न भिन्न करने के लिये (वज्री) तेजस्वी सूर्य (पौंस्यानि औक्षत्) नाना बल-कर्म वा जल धारता वा सेंचता है (एभिः) उनसे ही वह (वृष्ण्या पौंस्यानि आददे) वृष्टिकारक जलों को भी धारण करता है। उसी प्रकार (ये देवाः) जो देवनशील, तेजस्वी वीर पुरुष (क्रियमाणस्य कर्मणः मह्ना) किये जाने वाले कर्म के महान् सामर्थ्य से (ऋते कर्मम्) सत्य ज्ञान के आश्रय पर जगत् को रचने वाले प्रभु को भी (उत् अजायन्त) प्राप्त करते हैं (येभिः) जिनके द्वारा (वज्री) तेज, बल, पाप-निवारक बल का स्वामी प्रभु (वृत्र-हत्याय) विघ्नकारी अज्ञान और दुष्ट पुरुषों के विनाश और (वृत्र-हत्याय) नाना धनैश्वर्यों को प्राप्त करने के लिये (पौंस्यानि) नाना बलों और जीवों के हितकारी कर्मों को (औक्षत्) धारण करता और प्राप्त कराता है (एभिः) उनके ही द्वारा वह (वृष्ण्या) सब सुखों के देने वाले बलों को भी (आ दधे) धारण और प्रदान करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - बृहदुक्थो वामदेव्यः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ६ त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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