ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 55/ मन्त्र 7
ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ऐभि॑र्ददे॒ वृष्ण्या॒ पौंस्या॑नि॒ येभि॒रौक्ष॑द्वृत्र॒हत्या॑य व॒ज्री । ये कर्म॑णः क्रि॒यमा॑णस्य म॒ह्न ऋ॑तेक॒र्ममु॒दजा॑यन्त दे॒वाः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ए॒भिः॒ । द॒दे॒ । वृ॒ष्ण्या॒ । पौंस्या॑नि । येभिः॑ । औक्ष॑त् । वृ॒त्र॒ऽहत्या॑य । व॒ज्री । ये । कर्म॑णः । क्रि॒यमा॑णस्य । म॒ह्ना । ऋ॒ते॒ऽक॒र्मम् । उ॒त्ऽअजा॑यन्त । दे॒वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऐभिर्ददे वृष्ण्या पौंस्यानि येभिरौक्षद्वृत्रहत्याय वज्री । ये कर्मणः क्रियमाणस्य मह्न ऋतेकर्ममुदजायन्त देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । एभिः । ददे । वृष्ण्या । पौंस्यानि । येभिः । औक्षत् । वृत्रऽहत्याय । वज्री । ये । कर्मणः । क्रियमाणस्य । मह्ना । ऋतेऽकर्मम् । उत्ऽअजायन्त । देवाः ॥ १०.५५.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 55; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ये देवाः) जो मुमुक्षु (मह्ना क्रियमाणस्य कर्मणः) महत्त्व से महती शक्ति से किये जानेवाले-उत्पन्न किये जानेवाले जगत् का (ऋते कर्मम्-उत् अजायन्त) अमृतरूप मोक्ष में मोक्ष को निमित्त बनाकर अर्थात् केवल मोक्षार्थ न कि भोगार्थ सृष्टि के आरम्भ में प्रकट होते हैं (एभिः-वृष्ण्या पौंस्यानि-आ ददे) इन मुमुक्षुओं-ऋषियों के द्वारा मानवहितार्थ वेदवचनों को समन्तरूप से अर्थात् भली-भाँति प्रदान करता है (येभिः-वज्री वृत्रहत्याय-औक्षत्) वह ओजस्वी परमात्मा जिन वेदवचनों के द्वारा उनको ज्ञानवृद्ध बनाता है ॥७॥
भावार्थ
आरम्भसृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों द्वारा मानव कल्याण के लिए परमात्मा ने वेदों का प्रकाश किया है। वे चार ऋषि केवल वेदप्रकाशनार्थ तथा मोक्षप्राप्ति के निमित्त ही प्रकट हुए थे, भोगार्थ नहीं ॥७॥
विषय
किरणों और सूर्य का सा विद्वानों का परमेश्वर से सम्बन्ध।
भावार्थ
जिस प्रकार (देवाः) किरण वा वायुगण (क्रियमाणस्य कर्मणः मन्हा) किये जाने वाले कर्म, यज्ञादि के महान् सामर्थ्य से प्रेरित होकर (ऋते कर्मम् उत् अजायन्त) जलों के निमित्त कर्म को करने के लिये उठते और उदित होते हैं जिनसे (वृत्र-हत्याय) मेघको छिन्न भिन्न करने के लिये (वज्री) तेजस्वी सूर्य (पौंस्यानि औक्षत्) नाना बल-कर्म वा जल धारता वा सेंचता है (एभिः) उनसे ही वह (वृष्ण्या पौंस्यानि आददे) वृष्टिकारक जलों को भी धारण करता है। उसी प्रकार (ये देवाः) जो देवनशील, तेजस्वी वीर पुरुष (क्रियमाणस्य कर्मणः मह्ना) किये जाने वाले कर्म के महान् सामर्थ्य से (ऋते कर्मम्) सत्य ज्ञान के आश्रय पर जगत् को रचने वाले प्रभु को भी (उत् अजायन्त) प्राप्त करते हैं (येभिः) जिनके द्वारा (वज्री) तेज, बल, पाप-निवारक बल का स्वामी प्रभु (वृत्र-हत्याय) विघ्नकारी अज्ञान और दुष्ट पुरुषों के विनाश और (वृत्र-हत्याय) नाना धनैश्वर्यों को प्राप्त करने के लिये (पौंस्यानि) नाना बलों और जीवों के हितकारी कर्मों को (औक्षत्) धारण करता और प्राप्त कराता है (एभिः) उनके ही द्वारा वह (वृष्ण्या) सब सुखों के देने वाले बलों को भी (आ दधे) धारण और प्रदान करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहदुक्थो वामदेव्यः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ६ त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
'कुरु कर्म त्यजेति च'
पदार्थ
[१] (एभिः) = गत मन्त्र में वर्णित सत्य ज्ञानों से व स्पृहणीय धनों के ठीक प्रयोग से मैं (पौंस्यानि) = पुमान् [= पुरुष] के लिये हितकर (वृष्णया) = बलों को (आददे) = ग्रहण करता हूँ । ज्ञान से वासनाओं का क्षय होता है, वासनाक्षय शक्तिवर्धन का कारण बनता है । [२] ये शक्तियाँ वे हैं (येभिः) = जिनसे (वज्री) = [वज गतौ] क्रियाशीलता रूप वज्र को हाथों में धारण करनेवाला पुरुष (वृत्रहत्याय) = ज्ञान की आवरणभूत अतएव वृत्र नामवाली वासनाओं की हत्या के लिये (औक्षत्) = अपने को सिक्त करता है। क्रियाशीलता वासना को जीतने का साधन है और वासना विजय का परिणाम 'शक्तिवर्धन' है । [३] इस प्रकार ये जो व्यक्ति कर्मशील होते हैं वे (क्रियमाणस्य कर्मणः मह्न) = इन किये जाते हुए कर्मों की महिमा से युक्त होते हैं और (ऋते कर्मम्) = कर्म के बिना होते हैं, अर्थात् कर्म करते हैं और उसे प्रभु के अर्पण करके बिना कर्मवाले हो जाते हैं, इस प्रकार जो व्यक्ति 'कुरु कर्म त्यजेति च' [कर्म करो और छोड़ दो ] इन व्यास वचनों को जीवन में क्रियान्वित करते हैं वे (उत्) = इन कर्मों के अभिमान से ऊपर उठकर (देवा:) = देव (अजायन्त) = हो जाते हैं। देव वही है जो यज्ञात्मक उत्तम कर्मों को करता है और उन यज्ञों को भी संग व फल की इच्छा को छोड़कर ही करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम ज्ञानपूर्वक वसुओं का प्रयोग करते हुए शक्तिशाली बनें। कर्म करते हुए कर्म के अभिमान से ऊपर उठें, तभी हम देव बनेंगे।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ये देवाः) ये मुमुक्षुवः (मह्ना क्रियमाणस्य कर्मणः) महत्त्वेन महच्छक्त्या क्रियमाणस्य-उत्पाद्यमानस्य जगतः “जगद्वाचित्वात्” [वेदान्त०] (ऋते कर्मम्-उत्-अजायन्त) अमृते मोक्षे “ऋतममृतमित्याह” [जै० २।१६०] मोक्षं निमित्तीकृत्य कर्म प्रति केवलं मोक्षार्थम्, न तु भोगार्थम् उद्भवन्ति सृष्टेरादौ-प्रकटीभवन्ति (एभिः-वृष्ण्या पौंस्यानि-आददे) एतैर्मुमुक्षुभिर्ऋषिभिः पुमर्थानि वेदवचनानि “पौंस्यानि वचनानि” [ऋ० ६।३६।३ दयानन्दः] मनुष्यमात्राय समन्ताद् ददाति (येभिः-वज्री बृत्रहत्याय-औक्षत्) स ओजस्वी ‘वज्रो वा ओजः” [श० ८।४।१।२०] यैर्वचनैर्वेदवचनैस्तान् ज्ञानवृद्धान् करोति “उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः” [निरु १२।९] ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
With these potent and positive waves of natural energy, the virile Indra, wielder of thunderbolt, assumes those powers for breaking the clouds of darkness and want by which he brings about the showers of rain for the world of existence, which powers too for bringing about the showers of positive action and creativity arise from the grandeur of the omnipotent original doer of cosmic karma.
मराठी (1)
भावार्थ
मानव कल्याणासाठी परमात्म्याने सृष्टीच्या आरंभी वेदाचा प्रकाश केलेला आहे. ते चार ऋषी केवळ वेदप्रकाशनासाठी व मोक्षप्राप्तीच्या निमित्तासाठी प्रकट झालेले होते, भोगासाठी नाही. ॥७॥
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