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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 55/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वि॒धुं द॑द्रा॒णं सम॑ने बहू॒नां युवा॑नं॒ सन्तं॑ पलि॒तो ज॑गार । दे॒वस्य॑ पश्य॒ काव्यं॑ महि॒त्वाद्या म॒मार॒ स ह्यः समा॑न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒धुम् । द॒द्रा॒णम् । सम॑ने । ब॒हू॒नाम् । युवा॑नम् । सन्त॑म् । प॒लि॒तः । ज॒गा॒र॒ । दे॒वस्य॑ । प॒श्य॒ । काव्य॑म् । म॒हि॒ऽत्वा । अ॒द्य । म॒मार॑ । सः । ह्यः । सम् । आ॒न॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विधुं दद्राणं समने बहूनां युवानं सन्तं पलितो जगार । देवस्य पश्य काव्यं महित्वाद्या ममार स ह्यः समान ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विधुम् । दद्राणम् । समने । बहूनाम् । युवानम् । सन्तम् । पलितः । जगार । देवस्य । पश्य । काव्यम् । महिऽत्वा । अद्य । ममार । सः । ह्यः । सम् । आन ॥ १०.५५.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 55; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विधुं दद्राणम्) विधमनशील अर्थात् चञ्चल, दमनशील (बहूनाम्) बहुत इन्द्रियों के मध्य में (युवानं सन्तम्) मिलने-मिलानेवाले अन्तःकरण को (समने) सम्यक् आनन्द से सुषुप्तिकाल में (पलितः-जगार) फल भोगनेवाला आत्मा निगलता है-निरोध से अपने अन्दर ले लेता है, (सः-अद्य ममार ह्यः समान) वह आत्मा शयनकाल में मरे जैसा हो जाता है, जागने पर फिर वैसा ही। अथवा मर जाता है-देह त्याग देता है, तो अगले जन्म में फिर वैसा ही देहधारी हो जाता है, इस प्रकार दोनों अवस्थाओं में प्रेरित करनेवाला परमात्मा है (महित्वा) उस परमात्मदेव के इस शिल्प को-कृत्य को देख जिसकी (महित्वा) महिमा से ये सब होता है ॥५॥

    भावार्थ

    आत्मा जब सोता है, तो अन्तःकरण को अपने अन्दर ले लेता है, जिससे कि जागृत अवस्था में जागृत के अर्थात् सांसारिक व्यवहार करता है। जागने पर वैसा ही हो जाता है। उसी प्रकार मरने के पीछे फिर देह को धारण करता है, जन्म लेता है। जागृत-स्वप्न या जन्म-मृत्यु ईश्वर की व्यवस्था से होते हैं। अन्तःकरण इन्द्रियों में प्रमुख करण है, जो चञ्चल भी है और निरुद्ध भी हो जाता है। निरुद्ध हुआ-हुआ कल्याण का साधन बनता है ॥५॥

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    विषय

    प्रभु का महान् अमर काव्य।

    भावार्थ

    (विधुं) शत्रुओं को विशेष रूप से कंपाने वाले, विविध चेष्टा करने वाले, वा नाना कार्यों को करने वाले, (समने) संग्राम वा संगति काल में (बहूनां दद्राणं) बहुतों को बल से भगाने में समर्थ (युवानं सन्तं) युवा, बलवान् पुरुष को भी एक (पलितः) वृद्धतुल्य, व्यापक सूर्य जैसे (विधुं) चन्द्र को, वैसे ही वह पुराना काल (जगार) निगल जाता है। (देवस्य) उस प्रभु के (महित्वा) महान् सामर्थ्य से युक्त (काव्यं पश्य) महान् क्रान्तदर्शिता वा बुद्धिमत्ता से बनाये गये इस जगत् रूप काव्य को (पश्य) देख, (अद्य ममार) जो आज मरता है, (सः ह्यः) वह कल, आने वाले या गये को भी किसी दिन (समान) भली प्रकार प्राण लेता था और आगे भी पुनः उत्पन्न होगा। इति षोडशो वर्गः॥

    टिप्पणी

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    विषय

    काल-चक्र [जन्म से मृत्यु तक]

    पदार्थ

    [१] (विधुम्) = चन्द्रमा के समान अपने सौन्दर्य से औरों के हृदयों को विद्ध करनेवाले बालक उत्पन्न होता है, उसका सुन्दर मुख सभी को अपनी ओर आकृष्ट करता है, सो बालक विधु है । [२] कुछ बड़ा होकर (दद्राणम्) = विविध गतियों को यह निरन्तर करनेवाला होता है, इसके लिये शान्त बैठ सकने का सम्भव नहीं होता। बालक शब्द का अर्थ ही 'बल संचलने', संचलनशील है । [३] (बहूनाम्) = बहुतों के समने [ सम् अननात्, अन् प्राणने ] यह सम्यक् प्राणित करने में होता है, इसको देखकर माता-पिता आदि जी से उठते हैं। [४] धीमे-धीमे बढ़ता हुआ यह युवा बनता है। इस युवावस्था में यह 'यु मिश्रणामिश्रणयोः 'खूब जोड़-तोड़ में लगा रहता है। कुछ अच्छी वृत्ति होने पर बुराइयों से अपना अमिश्रण व अच्छाइयों से अपना मिश्रण करता है। पर यह चहल- पहल का जीवन बहुत देर तक नहीं रहता । (युवानं सन्तम्) = नौजवान होते हुए इसको (पलितः) = बुढ़ापे के कारण होनेवाली बालों की सफेदी जगार निगल लेती है। यह वृद्ध हो जाता है। यौवन की चहल-पहल व उमंगे समाप्त हो जाती हैं। [५] हे जीव ! तू (देवस्य) = उस क्रीड़ा करनेवाले, संसार रूप क्रीड़ा के [खेत के] अधिष्ठाता उस प्रभु के (काव्यम्) = इस अद्भुत कर्म को, कविता [wisdom, प्रज्ञा] पूर्ण कर्म को पश्य देख कि (महित्वा) = उसकी महिमा से (स) = वह व्यक्ति जो (ह्यः) = अभी कल ही (समान) = सम्यक् प्राणधारण कर रहा था, बिलकुल ठीक-ठाक था, वह (अद्या ममार) = आज मृत्यु का ग्रास हो गया है, वस्तुतः यह मृत्यु की घटना रहस्यमय होने से 'काव्य' ही है । यह मृत्यु रूप कर्म प्रज्ञा-पूर्ण भी है, क्योंकि इसके अभाव में यह संसार रहने योग्य न रहता, चलने-फिरने के लिये भी स्थान न होता। एक विद्वान् का यह वाक्य ठीक ही है कि 'Hed there been no death, manhwind world gave been foreed to intewt it ' = मृत्यु न होती, तो इसका भी आविष्कार ही करना पड़ता। [६] इस प्रकार कालचक्र में एक दिन हम शरीरधारण करके जीवनयात्रा को प्रारम्भ करते हैं और उसमें आगे बढ़ते हुए एक दिन अन्तिम स्थान पर पहुँच जाते हैं। यह सारी ही चीज विचारने पर अद्भुत-सी लगती है। =

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के कालचक्र में हम एक दिन आते हैं और आगे और आगे चलते हुए एक दिन चले जाते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विधुं दद्राणम्) विधमनशीलं चञ्चलं दमनशीलम् “विधुं विधमनशीलं दमनशीलम्” [निरु० १३।३२॥१४।१९] (बहूनाम्) बहूनामिन्द्रियाणां मध्ये (युवानं सन्तम्) मिश्रयितारं सन्तम्-अन्तःकरण आत्मानम् (समने) सम्-अने सम्यगनेनान्देन शयने सुषुप्तिकाले (पलितः-जगार) पलितः फलभोक्ता-आत्मा “पलित आत्मा” [निरु० १३।३२॥१४।१९] (सः-अद्य ममार ह्यः समान) स आत्माऽपि अद्यास्मिन् शयनकाले ह्यो मृत इव, यद्वा मृतो भवति देहं त्यजति, एवं योऽद्य सोऽपरे जन्मनि समानः-सम्यक्-अनिता प्राणयिता जायते जीवात्मनः जन्ममरणयोः प्रेरयिता परमात्मा (तस्य देवस्य काव्यं पश्य) तस्य परमात्मदेवस्य शिल्पं कृत्यं पश्य, हे जिज्ञासो ! यस्य (महित्वा) महत्त्वेन भवत्येवम् ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Old age consumes even the youthful man of versatile action whom many fear to face in battle and flee. Look at the inscrutable power of the lord divine by whose inevitable law of mutability the man who was living yesterday is dead today, and the one that dies today would be living to tomorrow.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आत्मा जेव्हा झोपतो तेव्हा अंत:करणाला आपल्यामध्ये घेतो. जेव्हा जागृत असतो अर्थात् तेव्हा सांसारिक व्यवहार करतो. त्याच प्रकारे मेल्यानंतर पुन्हा देह धारण करतो, जन्म घेतो. जागृत-स्वप्न किंवा जन्म-मृत्यू ईश्वर व्यवस्थेने होतात. अंत:करण हे इंद्रियात प्रमुख करण आहे. जे चंचलही आहे व निरुद्धही होते. निरुद्ध झाल्यावर कल्याणाचे साधन बनते. ॥५॥

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