ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 55/ मन्त्र 8
ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यु॒जा कर्मा॑णि ज॒नय॑न्वि॒श्वौजा॑ अशस्ति॒हा वि॒श्वम॑नास्तुरा॒षाट् । पी॒त्वी सोम॑स्य दि॒व आ वृ॑धा॒नः शूरो॒ निर्यु॒धाध॑म॒द्दस्यू॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒जा । कर्मा॑णि । ज॒नय॑न् । वि॒श्वाऽओ॑जाः । अ॒श॒स्ति॒ऽहा । वि॒श्वऽम॑नाः । तु॒रा॒षाट् । पी॒त्वी । सोम॑स्य । दि॒वः । आ । वृ॒धा॒नः । शूरः॑ । निः । यु॒धा । अ॒ध॒म॒त् । दस्यू॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
युजा कर्माणि जनयन्विश्वौजा अशस्तिहा विश्वमनास्तुराषाट् । पीत्वी सोमस्य दिव आ वृधानः शूरो निर्युधाधमद्दस्यून् ॥
स्वर रहित पद पाठयुजा । कर्माणि । जनयन् । विश्वाऽओजाः । अशस्तिऽहा । विश्वऽमनाः । तुराषाट् । पीत्वी । सोमस्य । दिवः । आ । वृधानः । शूरः । निः । युधा । अधमत् । दस्यून् ॥ १०.५५.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 55; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(विश्वौजाः) समस्त बलों का स्वामी (विश्वमनाः) समस्त मननीय ज्ञानवाला-सर्वज्ञ (अशस्तिहा) अज्ञानपापनाशक (तुराषाट्) शीघ्र अभिभवकर्त्ता (युजा कर्माणि जनयन्) ध्यानयोग से उपासकों के अन्दर साक्षात् होनेवाला वैदिक कर्मों की प्रेरणा करता हुआ (सोमस्य पीत्वी) उपासनारस को स्वीकार करके (दिवः-आ वृधानः) ज्ञानप्रकाशों को भलीभाँति बढ़ाता हुआ (शूरः) शूर के समान या ज्ञानप्रेरक परमात्मा (युधा) ज्ञान अथवा ज्ञानास्त्र से (दस्यून् निर्-अधमत्) सद्भावनाओं को क्षीण करनेवाले कामादि दोषों को नितान्त नष्ट करता है ॥८॥
भावार्थ
परमात्मा समस्त बलों का स्वामी, सर्वज्ञ, अज्ञान-पापनाशक, ज्ञानवर्धक, कामादि दोषों का निवारक है। उसकी उपासना करनी चाहिए ॥८॥
विषय
शिल्पी के तुल्य प्रभु परमेश्वर का जगत्सर्जन कार्य।
भावार्थ
(विश्व-ओजाः) समस्त प्रकार के बल पराक्रमों को करने वाला, प्रभु (युजा) संयोग, वा सहकारी कारण, उपादान, रूप प्रकृति के द्वारा (कर्माणि जनयन्) नाना कर्मों को करता हुआ (अशस्ति-हा) न कहने योग्य, अव्यक्त दशा का नाश करता हुआ, (विश्व-मनाः) सब ज्ञानों का स्वामी, सर्वज्ञ, (तुरा-षाट्) वेग से सब से अधिक, सर्वशक्तिमान् प्रभु (सोमस्य पीत्वी) बल वीर्य रूप जगद्-उत्पादक रूप सामर्थ्य का पालन या धारण करके, (आवृधानः) बढ़ता हुआ वा शिल्पी के समान (दिवः आवृधानः) तेजोमय सूर्य आदि लोकों को बनाता हुआ (युधा) प्रहार से (शूरः) शूरवत्, (दस्यून्) नाशकारणों को (निर् अधमत्) दूर कर देता है। इति सप्तदशो वर्गः॥
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहदुक्थो वामदेव्यः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ६ त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
दस्यु - निर्धमन
पदार्थ
[१] (युजा) = उस प्रभु रूप सदा साथ रहनेवाले मित्र के साथ (कर्माणि जनयन्) = कर्मों को पैदा करता हुआ यह होता है। कर्म करता है और उन कर्मों को प्रभु की शक्ति से होता हुआ अनुभव करता है, इसीलिए उन कर्मों का उसे अभिमान नहीं होता । कर्मों के करते रहने से ही यह ('विश्वौजाः') = यह व्याप्त बलवाला बनता है, सम्पूर्ण जीवन में शक्तिशाली बना रहता है, जीर्ण नहीं होता। शक्तिशाली बने रहने से (अशस्ति-हा) = सब अप्रशस्त बातों को यह समाप्त करता है, इसके शरीर में रोग नहीं होते, मन में राग-द्वेष नहीं होते तथा बुद्धि में कुण्ठता नहीं रहती । (विश्वमनाः) = यह व्यापक व उदार मनवाला बनता है। इसके मन में उदारता के कारण किसी प्रकार की मलिनता नहीं रहती । (तुराषाट्) = यह शीघ्रता से शत्रुओं का पराभव करनेवाला होता है । संकुचित हृदय में ही वासनाएँ पनपा करती हैं। विशाल हृदय में वासनाएँ नहीं रह पाती, वे विनष्ट हो जाती हैं । [२] इस प्रकार अपने जीवन को बनाने के लिये यह (सोमस्य) = शरीर में उत्पन्न सोम [= वीर्य] शक्ति का पान करके (दिवः) = ज्ञानों को (आवृधानः) = सर्वथा बढ़ाता हुआ यह (शूरः) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाला बनता है और (युधा) = हृदय के रणक्षेत्र में चलनेवाले अध्यात्म युद्ध के द्वारा (दस्यून्) = ध्वंसक वृत्तियों को, इन्द्रियों की शक्ति को नष्ट करनेवाले काम को, मन को नष्ट करनेवाले क्रोध को, बुद्धि को नष्ट करनेवाले लोभ को (निरधमत्) = सन्तप्त करके दूर कर देता है।
भावार्थ
भावार्थ - कर्म से शक्ति बढ़ती है, बुराइयाँ नष्ट होती हैं। हम सोम को शरीर में सुरक्षित करके ज्ञान को बढ़ाते हैं और शूर बनकर 'काम-क्रोध-लोभ' को पराभूत करते हैं । 'पराङ्मुखी वृत्तिवालों से प्रभु दूर रहते हैं' इन शब्दों से सूक्त का प्रारम्भ होता है, [१] और सोमरक्षण के द्वारा ज्ञान को बढ़ाकर काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठने के साथ सूक्त का अन्त है, [२] काम-क्रोध व लोभ के नाश से 'शरीर, हृदय व मस्तिष्क' की ज्योतियों का उदय होता है-
संस्कृत (1)
पदार्थः
(विश्वौजाः) समस्त बलस्वामी (विश्वमनाः) समस्तमननीयज्ञानवान् सर्वज्ञः (अशस्तिहा) अज्ञानपापनाशकः (तुराषाट्) शीघ्रमभिभविता (युजा कर्माणि जनयन्) योगेन ध्यानयोगेनोपासकेषु खल्वादिपरमर्षिषु वैदिककर्माणि कारयन् (सोमस्य पीत्वी) उपासनारसं पीत्वा स्वीकृस्य “स्नात्व्यादयश्च” [अष्टा० ७।१।४९] (दिवः-आवृधानः) ज्ञानप्रकाशान् समन्ताद् वर्धयमानः (शूरः) शूर इव यद्वा ज्ञानप्रेरकः “शूरः शवतेर्गतिकर्मणः” [निरु० ४।१३] (युधा) ज्ञानेन ज्ञानास्त्रेण वा “युध्यति गतिकर्मा” [निघ० २।१४] (दस्यून् निर्-अधमत्) सद्भावानामुपक्षयकर्तॄन् कामादिदोषान् निर्ममयति नितान्तं नाशयति वा “धमति गतिकर्मा” [निघ० २।१४] “धमति वधकर्मा” [निघ० २।१९] ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Originally causing and bringing about the dynamics of cosmic karma, the Lord Almighty of the world, destroyer of negatives and despicables, all knowing cosmic mind, instant and total victor, protector of soma, augmenter of light, almighty, blows the conch and blows away the forces of nescience.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर संपूर्ण बलांचा स्वामी, सर्वज्ञ, अज्ञान व पापनाशक, ज्ञानवर्धक, काम इत्यादी दोषांचा निवारक आहे. त्याची उपासना केली पाहिजे. ॥८॥
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