ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 55/ मन्त्र 3
ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ रोद॑सी अपृणा॒दोत मध्यं॒ पञ्च॑ दे॒वाँ ऋ॑तु॒शः स॒प्तस॑प्त । चतु॑स्त्रिंशता पुरु॒धा वि च॑ष्टे॒ सरू॑पेण॒ ज्योति॑षा॒ विव्र॑तेन ॥
स्वर सहित पद पाठआ । रोद॑सी॒ इति॑ । अ॒पृ॒णा॒त् । आ । उ॒त । मध्य॑म् । पञ्च॑ । दे॒वान् । ऋ॒तु॒ऽशः । स॒प्तऽस॑प्त । चतुः॑ऽत्रिंशता । पु॒रु॒धा । वि । च॒ष्टे॒ । सऽरू॑पेण । ज्योति॑षा । विऽव्र॑तेन ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ रोदसी अपृणादोत मध्यं पञ्च देवाँ ऋतुशः सप्तसप्त । चतुस्त्रिंशता पुरुधा वि चष्टे सरूपेण ज्योतिषा विव्रतेन ॥
स्वर रहित पद पाठआ । रोदसी इति । अपृणात् । आ । उत । मध्यम् । पञ्च । देवान् । ऋतुऽशः । सप्तऽसप्त । चतुःऽत्रिंशता । पुरुधा । वि । चष्टे । सऽरूपेण । ज्योतिषा । विऽव्रतेन ॥ १०.५५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 55; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(रोदसी-आ-अपृणात्) ऐश्वर्यवान् परमात्मा अपनी व्याप्ति से द्युलोक पृथिवीलोक को भलीभाँति पूर्ण करता है-भरता है (मध्यम्-उत-आ) दोनों के मध्य अर्थात् अन्तरिक्ष को भी भलीभाँति भर रहा है (ऋतुशः) ऋतुओं के अनुसार (पञ्च सप्तसप्त देवान्) पाँच ज्ञानेन्द्रिय देवों और सर्पणशील सात प्राणस्थानों को-शरीर में मस्तक आदि प्राणों के केन्द्रों को भलीभाँति पूर्ण करता है (चतुस्त्रिंशता पुरुधा) चौंतीस पदार्थों के गण के साथ उनको बहुधा (विव्रतेन सरूपेण ज्योतिषा विचष्टे) विविध कर्मवाले समानरूप केवल स्वरूप से तेज से विशिष्टरूप से देखता है, प्रकाशित करता है ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा अपनी व्याप्ति से द्युलोक, अन्तरिक्षलोक, पृथिवीलोकों को पूर्ण कर रहा है-भर रहा है। पाँच ज्ञानेन्द्रियों और सर्पणशील सात प्राणकेन्द्रों को भी अपनी व्याप्ति से उनको अपने व्यवहार में समर्थ बना रहा है तथा अपनी विविध कर्मशक्ति से और ज्ञानज्योति से सबको देखता और प्रकाशित करता है ॥३॥
विषय
प्रभु का सर्वपालक, सर्वपूरक रूप, ३४ विकृतियों का मूल गुह्य रूप।
भावार्थ
वह (रोदसी) भूमि और आकाश को पूर्ण कर रहा है। (उत मध्यम् अपृणात्) और वह दोनों के बीच के भाग को भी पूर्ण कर रहा है, ऊपर नीचे, आकाश, भूमि और मध्य अन्तरिक्ष इस स्थान पर बसे समस्त लोकों को भी पाल रहा है। वह (ऋतुशः) ऋतु रूप में विद्यमान (पञ्च देवान्) पांच प्रकार के किरणों, वर्गों या ऋतु-उत्पादक प्रकाशों को सूर्य के समान पांच भूतों और पांच प्राणों को (अपृणात्) पूर्ण करता है, उनमें भी व्यापता और उनको भी प्रकाशित, गतिमान् करता है। वह (वि-व्रतेन) विविध कर्म के जनक (चतुस्त्रिंशता) ३४ प्रकार के विकारों से (स-रूपेण ज्योतिषा) एक समान तेज से भी (पुरु-धा विचष्टे) नाना प्रकार का दीखता है। ८ वसु, १२ आदित्य, ११ रुद्र, प्रजापति, वषट्कार और विराट् ये चौंतीस हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहदुक्थो वामदेव्यः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ६ त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
सूर्यरूप विभूति
पदार्थ
[१] प्रभु की विभूति यह सूर्य (रोदसी) = द्युलोक व पृथ्वीलोक को (आ अपृणात्) = समन्तात् प्रकाश से परिपूर्ण कर देता है, (उत) = और (मध्यं आ) = इस अन्तरिक्षलोक रूप मध्य लोक को भी यह प्रकाश से व्याप्त करता है। वस्तुतः सूर्य के रूप में प्रभु का प्रकाश ही इन सब लोकों को दीप्त करता है। [२] व सूर्य ही प्राणियों के शरीरों में रोगों को जीतने की कामना करनेवाले (पंच देवान्) = प्राण, अपान, व्यान, उदान व समान रूप पाँच प्राणों को (आ अपृणात्) = समन्तात् पूरित करता है । 'प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्य: 'सूर्य ही प्रजाओं का प्राण है । ये प्राण रोगों को जीतने के कारण देव कहलाते हैं 'दिव् विजिगीषा' । (क्रतुशः) = समय-समय पर यह सूर्य (सप्त) = सर्पणशील (सप्त) = अपनी सात रंगों की किरणों को सर्वत्र पूरित करता है। इनके द्वारा ही वह सब प्राणदायी तत्त्वों को वनस्पति आदि में धारण करता है । [३] (चतुस्त्रिंशता) = तेंतीस देवों के अधिष्ठातृरूप उस चौंतीसवें प्रभु के साथ यह सूर्य (पुरुधा) = नाना प्रकार से (विचष्टे) = प्राणियों का पालन करता है [विचक्ष् = to look after ] । (सरूपेण ज्योतिषा) = समानरूपवाली अपनी ज्योति से, जो (विव्रतेन) = विविध व्रतोंवाली है, उस ज्योति से वह सूर्य सभी का पालन करता है। सूर्य की सात रंगों की किरणें भिन्न-भिन्न प्राणदायी तत्त्वों की [vitamins] स्थापना करती हुईं 'वि- व्रत' हैं । सब मिलकर के एक श्वेत रूप अप्रकट हो रही हैं। एवं विव्रत होती हुई ये समान हैं। वस्तुतः इन में विविध प्राणशक्तियों को स्थापित करता हुआ प्रभु ही सबका पालन करता है। यह सूर्य प्रभु की अद्भुत विभूति है।
भावार्थ
भावार्थ- सूर्य सर्वत्र प्रकाश को फैलाता है। अपनी किरणों द्वारा सर्वत्र प्राणशक्ति का संचार करता हुआ सबका पालन करता है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(रोदसी-आ-अपृणात्) इन्द्रः ऐश्वर्यवान् परमात्मा द्यावापृथिव्यौ स्वव्याप्त्या समन्तात् पूरयति (मध्यम्-उत-आ) मध्यमन्तरिक्षं च समन्तात् पूरयति (ऋतुशः) ऋतोरनुरूपम् (पञ्च सप्तसप्त देवान्) पञ्चेन्द्रियदेवान् सप्तसृप्तान् सर्पणशीलान् प्राणान् “सप्तेमे लोका येषु चरन्ति प्राणाः” [उपनिषद्] समन्तात् पूरयति (चतुस्त्रिंशता पुरुधा) चतुस्त्रिंशद्युक्तेन गणेन सह तान् पूर्वोक्तान् बहुधा (विव्रतेन सरूपेण ज्योतिषा विचष्टे) विविधकर्मवता समानरूपेण केवलेन स्वरूपेण तेजसा विशिष्टं पश्यति दर्शयति प्रकाशयति ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That glorious presence pervades and fills heaven and earth and the middle regions, fills and energises the five divine elements, five senses, five pranas, seven regions of the universe, seven rays of light, forty nine orders of the winds, all according to the seasons of time, and it watches and illuminates thirty four orders of divine powers of eight Vasus, eleven Rudras, twelve Adityas, nature’s nourishment by Prajapati, nature’s energy of fire, electricity and light, and Vak, the articulation of consciousness, all in many ways, with different functions and effects.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा आपल्या व्याप्तीने द्युलोक, अंतरिक्ष लोक, पृथ्वीलोक पूर्ण करून सर्वत्र भरलेला आहे. पाच ज्ञानेंद्रिये व सर्पणशील सात केंद्रांनाही आपल्या व्याप्तीने त्यांना व्यवहारात समर्थ करत आहे. तो आपल्या विविध कर्मशक्तीने व ज्ञानशक्तीने सर्वांना पाहतो व प्रकाशित करतो. ॥३॥
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