Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 55 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 55/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    शाक्म॑ना शा॒को अ॑रु॒णः सु॑प॒र्ण आ यो म॒हः शूर॑: स॒नादनी॑ळः । यच्चि॒केत॑ स॒त्यमित्तन्न मोघं॒ वसु॑ स्पा॒र्हमु॒त जेतो॒त दाता॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शाक्म॑ना । शा॒कः । अ॒रु॒णः । सु॒ऽप॒र्णः । आ । यः । म॒हः । शूरः॑ । स॒नात् । अनी॑ळः । यत् । चि॒केत॑ । स॒त्यम् । इत् । तत् । न । मोघ॑म् । वसु॑ । स्पा॒र्हम् । उ॒त । जेता॑ । उ॒त । दाता॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शाक्मना शाको अरुणः सुपर्ण आ यो महः शूर: सनादनीळः । यच्चिकेत सत्यमित्तन्न मोघं वसु स्पार्हमुत जेतोत दाता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शाक्मना । शाकः । अरुणः । सुऽपर्णः । आ । यः । महः । शूरः । सनात् । अनीळः । यत् । चिकेत । सत्यम् । इत् । तत् । न । मोघम् । वसु । स्पार्हम् । उत । जेता । उत । दाता ॥ १०.५५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 55; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः) जो परमात्मा (शाक्मना शाकः) बल से अथवा शक्य कर्म करने के हेतु समर्थ है (अरुणः) तेजस्वी (सुपर्णः) उत्तम पालन करनेवाला (महः-शूरः) महान् शूरवीर है (सनात्) शाश्वतिक (अनीडः) अनेकदेशी-अनन्त-सर्वव्यापक (यत्-आ चिकेत) जो भलीभाँति जानता है (तत्-सत्यम्-इत्) वह सत्य ही होता है और सत्य ही जानता है (न मोघम्) व्यर्थ नहीं होता है, असत्य नहीं होता है (उत स्पार्हं वसु जेता) स्पृहणीय धन, मोक्षधन-आत्मा को बसानेवाले धन को जीतता है, प्राप्त करता है (उत दाता) हाँ, मुमुक्षुओं के लिए देता है ॥६॥

    भावार्थ

    परमात्मा सृष्टि के रचने और जीवों को कर्मफल देने में सर्वथा समर्थ है। वह किसी एक नियत देश में नहीं, अपितु अनन्त है। वह शाश्वतिक है, सत्यस्वरूप है। उसके कार्य सत्य हैं, व्यर्थ अर्थात् असत्य नहीं हैं। अधिकारी मुमुक्षुओं को चाहने योग्य और बसाने योग्य मोक्ष धन को देता है ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सर्वशक्तिमान् महान्, सनातन, सर्वव्यापक सत्य स्वरूप। अमोघ विजयी दानी प्रभु।

    भावार्थ

    वह परमेश्वर (शाक्मना शाकः) अपनी महती शक्ति से शक्तिशाली है। वह (अरुणः) तेजोमय (सुपर्णः) सुख से सबका पालक है। (यः) जो वह (महः) महान् (शूरः) दुष्टों का नाशक, (सनात्) सनातन, (अनीडाः) किसी विशेष स्थान पर न होकर, सर्वव्यापक है। वह (यत् चिकेत) जो कुछ भी जानता है, (सत्यम् इत् तत्) वह सब सत्य ही है। (तत् मोघं न) वह कभी व्यर्थ, निष्फल (वसु न जेता) ऐश्वर्य को नहीं जीतता (उत न दाता) और व्यर्थ नहीं देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहदुक्थो वामदेव्यः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ६ त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सत्य-ज्ञान व स्पृहणीय धन

    पदार्थ

    [१] वे प्रभु (शाक्मना शाकः) = सब शक्तियों से शक्ति सम्पन्न हैं । सर्वशक्तिमान् हैं। (अरुण:) = [ आरोचनः नि० ५।२० ] समन्तात् दीप्त हैं अपनी शक्तियों से वे प्रभु चमकते हैं। (सुपर्णः) = उत्तमता से हमारा पालन व पूरण करनेवाले हैं, शरीर में हमें रोगों से बचाते हैं तो हमारे मनों में न्यूनताओं को नहीं आने देते। [२] ये प्रभु (आ) = सब ओर से (महः) = महान् ही महान् हैं ज्ञान के दृष्टिकोण से निरतिशय ज्ञानवाले हैं तो सर्वाधिक शक्तिवाले हैं 'नत्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्य: 'हे प्रभो ! आपके समान कोई नहीं, अधिक तो हो ही कैसे सकता है ? अतएव ये प्रभु [मह पूजायाम्] पूजा के योग्य हैं। (शूरः) = [शृ हिंसायाम्] हमारे सब काम-क्रोध आदि शत्रुओं का संहार करनेवाले हैं। (सनात्) = सदा से हैं प्रभु सनातन हैं। (अनीडः) = वे प्रभु बिना नीडवाले हैं, उनका कोई घर नहीं, वस्तुतः वे प्रभु ही सबके घर हैं। [३] वे प्रभु (यत्) = जो (चिकेत) = ज्ञान देते हैं (तत्) = वह ज्ञान (इत्) = निश्चय से (सत्यम्) = सत्य है, (न मोघम्) = वह ज्ञान व्यर्थ नहीं है। वेद में कोई भी शब्द अनावश्यक नहीं है। वेद का सम्पूर्ण ज्ञान सत्य व सार्थक है। [४] वे प्रभु जहाँ इस सत्य ज्ञान को हमें देते हैं, (उत) = और वहाँ (स्पार्हं वसु) = स्पृहणीय धन को (जेता) = जीतनेवाले होते हैं (उत) = और (दाता) = हमें देनेवाले हैं। सम्पूर्ण धनों का विजय प्रभु ही करते हैं। प्रभु कृपा से ही हमें निवास के लिये आवश्यक धनों की प्राप्ति होती है। ज्ञान देते हैं और धन को देते हैं। धन के साथ ज्ञान के कारण धन का हम दुरुपयोग करने से बचते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु शक्तिशाली हैं । वे हमें सत्य ज्ञान व स्पृहणीय-धन प्राप्त कराते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः) यः खलु परमात्मा (शाक्मना शाकः) शक्मना बलेन यद्वा शक्येन कर्मणा शक्यकर्महेतुना “शक्म कर्मनाम” [निघ० २।१] शक्तः (अरुणः) तेजस्वी (सुपर्णः) सुष्ठु पालनकर्त्ता (महः-शूरः) महान् शूरवीरः (सनात्) शाश्वतिकः (अनीडः) अनेकदेशी-अनन्तः सर्वव्यापकः (यत्-आचिकेत) यत् समन्ताद् जानाति (तत्-सत्यम्-इत्) तत् सत्यं हि भवति सत्यं जानाति (न मोघम्) न व्यर्थं भवति (उत स्पार्हं वसु जेता) स्पृहणीयं धनं मोक्षधनं वासमभिभाविता रक्षिता (उत दाता) अपि मुमुक्षुभ्यो दाता च ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    He is Almighty by might supreme, blazing lustrous, high flying and all caring, great, brave, eternally unbound by space. What he knows is truth inviolable, never infructuous, he is universal haven, lovable, all conqueror, all giving.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा सृष्टी उत्पन्न करणे व जीवांना कर्मफल देणे यामध्ये सर्वस्वी समर्थ आहे. तो कोणत्या एका निश्चित देशात नाही तर अनंत आहे. तो शाश्वतिक आहे, सत्यस्वरूप आहे. त्याची कार्ये सत्य आहेत अर्थात असत्य नाहीत. तो अधिकारी मुमुक्षूंना इच्छित व वसविण्यायोग्य मोक्ष धन देतो. ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top