ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 55/ मन्त्र 2
ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
म॒हत्तन्नाम॒ गुह्यं॑ पुरु॒स्पृग्येन॑ भू॒तं ज॒नयो॒ येन॒ भव्य॑म् । प्र॒त्नं जा॒तं ज्योति॒र्यद॑स्य प्रि॒यं प्रि॒याः सम॑विशन्त॒ पञ्च॑ ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हत् । तत् । नाम॑ । गुह्य॑म् । पु॒रु॒ऽस्पृक् । येन॑ । भू॒तम् । ज॒नयः॑ । येन॑ । भव्य॑म् । प्र॒त्नम् । जा॒तम् । ज्योतिः॑ । यत् । अ॒स्य॒ । प्रि॒यम् । प्रि॒याः । सम् । अ॒वि॒श॒न्त॒ । पञ्च॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
महत्तन्नाम गुह्यं पुरुस्पृग्येन भूतं जनयो येन भव्यम् । प्रत्नं जातं ज्योतिर्यदस्य प्रियं प्रियाः समविशन्त पञ्च ॥
स्वर रहित पद पाठमहत् । तत् । नाम । गुह्यम् । पुरुऽस्पृक् । येन । भूतम् । जनयः । येन । भव्यम् । प्रत्नम् । जातम् । ज्योतिः । यत् । अस्य । प्रियम् । प्रियाः । सम् । अविशन्त । पञ्च ॥ १०.५५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 55; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(तत् महत्-नाम गुह्यं पुरुस्पृक्) परमात्मन्, महत्त्वपूर्ण गुप्त बहुतेरे मुमुक्षुओं द्वारा चाहने योग्य तेरा नाम-स्वरूप है (येन भूतं येन भव्यं जनयः) जिससे भूत, वर्त्तमान और भावी जगत् को उत्पन्न करता है, परोक्ष अर्थात् प्रथम पुरुष के रूप से कहा जाता है (अस्य यत् प्रत्नं प्रियं ज्योतिः-जातम्) इस परमात्मा की जो शाश्वत प्रिय ज्योति-ज्योतिर्मय मोक्ष रूप है, वह प्रसिद्ध है (पञ्च प्रियाः सम् अविशन्त) पाँच जन अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, निषाद-भील ये प्यारे स्तोता जिसके अन्दर संविष्ट होते हैं-सम्यक् स्थान पाते हैं ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा के गहन मननीय स्वरूप को मुमुक्षु जन चाहते हैं, वह अपने स्वरूप सत्ता से या शक्ति से तीनों कालों में होनेवाले जगत् का उत्पत्तिकर्त्ता है। उसके प्रिय ज्योतिर्मय मोक्षधाम में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद उपासक बनकर स्थान पाने के अधिकारी हैं बिना भेदभाव के ॥२॥
विषय
परमेश्वर का सर्वप्रिय, सर्वपोषक, गुह्य रूप।
भावार्थ
(महत् तुत् गुह्यं नाम) वह महान् गुप्ततम रूप है (पुरु स्पृक्) जिस को अनेक जीवगण प्रेम करते हैं, (येन) जिससे (भूतम्) इस उत्पन्न जगत् को तू (जनयः) उत्पन्न करता है, और (येन भव्यम् जनयः) जिस अपने सामर्थ्य से तू भविष्यत् को भी उत्पन्न करता है, और (यत्) यह कि जो (अस्य) इसका (प्रत्नं) अति पुरातन (ज्योतिः) प्रकाशमय रूप भी (अस्य प्रियं जातम्) इस उत्पन्न जीवसर्ग को प्रिय, पोषकपालक रूप से प्रकट हुआ। इसी प्रिय ज्योति को प्राप्त होकर (पञ्च सम् अविशन्त) आत्मा में पांचों प्राणों के तुल्य पांचों महाभूत आश्रय करते हैं। इस प्रकार पूर्व सूक्त में कहे ४ रूप प्रभु के हैं। १ जगत्स्तम्भनकारी, २ जगत्-प्रेरक, ३ जगत्-जनक और ४ सर्वप्रिय।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहदुक्थो वामदेव्यः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ६ त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
पञ्च प्रियों का प्रभु में प्रवेश
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (तत्) = वह (प्रसि नाम) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं को झुका देनेवाला आपका बल (गुह्यम्) = प्रत्येक व्यक्ति के हृदय रूप गुहा विद्यमान है, (महत्) = यह बल महनीय है, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। केवल यही बल है जो कि कामदेव को भस्म कर देता है। (पुरुस्पृः) = यह बल ऐसा कि [ पुरु पथा स्यात् तथा स्पृशति ] स्पर्श करता हुआ पालन व पूरण करता है। जिसके साथ इस बल का सम्पर्क होता है, वह रोगों से आक्रान्त नहीं होता [पालन] उसके मन में लोभादि के कारण न्यूनताएँ नहीं आ जाती [पूरण] । [२] यही वह बल है (येन) = जिससे (तम्) = भूतकाल में सृष्टियों का आपने जनयःनिर्माण किया, (येन) = जिससे (भव्यम्) = भविष्य की सृष्टियों का भी आप निर्माण करेंगे। आपका भक्त भी इस बल से बलवाला होकर अपने भूत व भविष्य को उज्ज्वल बनानेवाला होता है । इस भक्त के हृदय में (यत्) = जो (अस्य) = इस प्रभु की (प्रत्नं ज्योतिः) = सनातन ज्योति वेदरूप है वह (जातम्) = प्रादुर्भूत होती है। [३] इस ज्योति के अनुसार कार्य करते हुए पञ्च (प्रियाः) = 'पची विस्तारे' अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाले और अतएव प्रभु के प्रिय लोग (प्रियम्) = अपने प्रिय उस प्रभु में (समविशन्त) = प्रवेश करते हैं अथवा 'पञ्च प्रिया: 'पाँच शरीर के कारणरूप भूतों को, पाँचों प्राणों को, पाँचों कर्मेन्द्रियों को, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को तथा 'हृदय, मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार' रूप अन्तःकरण पंचक को प्रीणित करनेवाले लोग उस प्रिय प्रभु में प्रवेश करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु के बल से बलवाले होकर ही हम भूत व भव्य का निर्माण करते हैं। अपनी शक्तियों का विस्तार करके प्रभु में प्रवेश के अधिकारी होते हैं । नोट- 'पंच प्रियाः ' शब्द सिखों के पाँच प्यारों का वाचक यहाँ नहीं है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(तत्-महत्-नाम गुह्यं पुरुस्पृक्) परमात्मन्, तन्महत्त्वपूर्णं गुप्तं स्वरूपं पुरुभिः-बहुभिर्मुमुक्षुभिः स्पृहणीयमसि (येन भूतं येन भव्यं जनयः) येन भूतं वर्तमानं येन भावि च जगदुत्पादयसि, परोक्षेणोच्यते (अस्य यत् प्रस्नं प्रियं ज्योतिः-जातम्) अस्य परमात्मनो यत् शाश्वतं प्रियं ज्योतिः-ज्योतिर्मयं मोक्षरूपं प्रसिद्धमस्ति (पञ्च प्रियाः समविशन्त) पञ्च जनाः-ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रनिषादाः प्रियाः स्तोतारस्तत्र संविशन्ते ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Great and deeply glorious is that name and divine presence universally loved and adored by which you create all that has been and that which would be. That light and glory of this Indra is eternal, ever existent and dear to all into which all the five people that love him and are dear to him and all the five elements of nature retire (when the cycle of existence has run a full circle).
मराठी (1)
भावार्थ
मुमुक्षू लोक परमात्म्याच्या गहन मननीय स्वरूपाची इच्छा करतात. तो आपल्या स्वरूपसत्तेने किंवा शक्तीने तिन्ही काळी वर्तमान असणाऱ्या जगाचा उत्पत्तिकर्ता आहे. भेदभावरहित त्याच्या प्रिय ज्योतिर्मय मोक्षधामात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व निषाद उपासक बनून स्थान प्राप्त करू शकतात. ॥२॥
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