ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 90/ मन्त्र 1
स॒हस्र॑शीर्षा॒ पुरु॑षः सहस्रा॒क्षः स॒हस्र॑पात् । स भूमिं॑ वि॒श्वतो॑ वृ॒त्वात्य॑तिष्ठद्दशाङ्गु॒लम् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒हस्र॑ऽशीर्षा । पुरु॑षः । स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षः । स॒हस्र॑ऽपात् । सः । भूमि॑म् । विश्वतः॑ । वृ॒त्वा । अति॑ । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । द॒श॒ऽअ॒ङ्गु॒लम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽशीर्षा । पुरुषः । सहस्रऽअक्षः । सहस्रऽपात् । सः । भूमिम् । विश्वतः । वृत्वा । अति । अतिष्ठत् । दशऽअङ्गुलम् ॥ १०.९०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 90; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
विषय - पुरुष सूक्त। महान् पुरुष का वर्णन। सर्वोपरि महान् प्रभु।
भावार्थ -
पुरुष-सूक्त। (पुरुषः) पुर में व्यापक शक्ति वाले राजा के समस्त ब्रह्माण्ड में व्यापक परम पुरुष परमात्मा (सहस्र-शीर्षाः) हजारों शिरों वाला है। (सः) वह (भूमिं) सब जगत् के उत्पादक, सर्वाश्रय प्रकृति को (विश्वतः वृत्वा) सब ओर से, सब प्रकार से वरण कर, व्याप कर (दशअंगुलम् अति अतिष्ठत्) दश अंगुल अतिक्रमण करके विराजता है। अंगुल यह इन्द्रिय वा देह का उपलक्षण है, अर्थात् वह दशों इन्द्रियों के भोग और कर्म के क्षेत्र से बाहर है। वह न कर्म-बन्धन में बद्ध रहता है और न मन का विषय है। समस्त संसार के शिर उसके शिर हैं और समस्त संसार के चक्षु और चरण भी उसी के चक्षु और चरणवत् हैं। सर्वत्र उसी की दर्शन शक्ति और गतिशक्ति कार्य कर रही है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्नारायणः॥ पुरुषो देवता॥ छन्दः–१–३, ७, १०, १२, निचृदनुष्टुप्। ४–६, ९, १४, १५ अनुष्टुप्। ८, ११ विराडनुष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥
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