ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 47/ मन्त्र 3
ऋषिः - प्रतिरथ आत्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उ॒क्षा स॑मु॒द्रो अ॑रु॒षः सु॑प॒र्णः पूर्व॑स्य॒ योनिं॑ पि॒तुरा वि॑वेश। मध्ये॑ दि॒वो निहि॑तः॒ पृश्नि॒रश्मा॒ वि च॑क्रमे॒ रज॑सस्पा॒त्यन्तौ॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठउ॒क्षा । स॒मु॒द्रः । अ॒रु॒षः । सु॒ऽप॒र्णः । पूर्व॑स्य । योनि॑म् । पि॒तुः । आ । वि॒वे॒श॒ । मध्ये॑ । दि॒वः । निऽहि॑तः । पृश्निः॑ । अश्मा॑ । वि । च॒क्र॒मे॒ । रज॑सः । पा॒ति॒ । अन्तौ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उक्षा समुद्रो अरुषः सुपर्णः पूर्वस्य योनिं पितुरा विवेश। मध्ये दिवो निहितः पृश्निरश्मा वि चक्रमे रजसस्पात्यन्तौ ॥३॥
स्वर रहित पद पाठउक्षा। समुद्रः। अरुषः। सुऽपर्णः। पूर्वस्य। योनिम्। पितुः। आ। विवेश। मध्ये। दिवः। निऽहितः। पृश्निः। अश्मा। वि। चक्रमे। रजसः। पाति। अन्तौ ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 47; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
विषय - पुत्र पुत्रियों को माता का उपदेश ।
भावार्थ -
भा०-हे पुत्रि ! मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह (उक्षा) वीर्य सेचन एवं गृहस्थ धारण करने में समर्थ हो । वह (समुद्रः ) समुद्र के समान गंभीर, समान भाव से स्त्री के सहयोग में रह कर स्वयं और उस को प्रमोद, रति आदि करने में समर्थ और (अरुपः) स्वयं तेजस्वी और स्त्री पर अनुग्रह बुद्धि वा रोष न करने हारा हो । वह (सुपर्णः) उत्तम पालन करने वाला होकर अपने (पूर्वस्य पितुः) पूर्वक पिता के (योनिम् ) गृह को ( आविवेश ) प्रविष्ट होता है अर्थात् पुरुष अपने पिता के गृह का स्वामी हुआ करता है । (दिवः मध्ये निहितः पृश्निः ) जिस प्रकार आकाश के बीच में स्थित सूर्य ( अश्मा ) व्यापक होकर ( वि चक्रमे ) विविध कार्य करता और ( रजसः अन्तौ पाति ) समस्त संसार के अन्तों, छोरों का भी पालन करता है इसी प्रकार पुरुष भी (दिवः मध्ये ) पृथिवी के बीच (दिवः मध्ये ) व्यवहार में और (दिवः मध्ये ) कामना योग्य अपनी स्त्री के हृदय में ( निहितः ) स्थिर होकर ( पृश्निः ) मेघवत् रस वर्षण, वीर्य निषेक करने में समर्थ और ( अश्मा ) शिला के समान दृढ़ एवं भोक्ता होकर, वा मेघवत् दानशील होकर (वि चक्रमे ) विविध प्रकार से आगे कदम बढ़ावे और ( रजसः अन्तौ ) रजोभाव की दोनों सीमाओं की ( पाति) रक्षा करे। अर्थात् यौवन के आदि और अन्त वा गर्भ काल के आदि अन्त दोनों सीमाओं के बीच काल में अपने और अपने पत्नी के जीवन, बल-वीर्य की रक्षा करे। अथवा ( रजसः अन्तौ) लोकों के दोनों अन्त अर्थात् दोनों मूल कारण रज और वीर्य वा परिमाम रूप पुत्र और पुत्री दोनों की समान भाव से रक्षा करे ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रतिरथ आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:- १, २, ३, ७ त्रिष्टुप् ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ५ भुरिक् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
इस भाष्य को एडिट करें