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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 47/ मन्त्र 3
    ऋषिः - प्रतिरथ आत्रेयः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒क्षा स॑मु॒द्रो अ॑रु॒षः सु॑प॒र्णः पूर्व॑स्य॒ योनिं॑ पि॒तुरा वि॑वेश। मध्ये॑ दि॒वो निहि॑तः॒ पृश्नि॒रश्मा॒ वि च॑क्रमे॒ रज॑सस्पा॒त्यन्तौ॑ ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒क्षा । स॒मु॒द्रः । अ॒रु॒षः । सु॒ऽप॒र्णः । पूर्व॑स्य । योनि॑म् । पि॒तुः । आ । वि॒वे॒श॒ । मध्ये॑ । दि॒वः । निऽहि॑तः । पृश्निः॑ । अश्मा॑ । वि । च॒क्र॒मे॒ । रज॑सः । पा॒ति॒ । अन्तौ॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्षा समुद्रो अरुषः सुपर्णः पूर्वस्य योनिं पितुरा विवेश। मध्ये दिवो निहितः पृश्निरश्मा वि चक्रमे रजसस्पात्यन्तौ ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उक्षा। समुद्रः। अरुषः। सुऽपर्णः। पूर्वस्य। योनिम्। पितुः। आ। विवेश। मध्ये। दिवः। निऽहितः। पृश्निः। अश्मा। वि। चक्रमे। रजसः। पाति। अन्तौ ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 47; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं विज्ञातव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यः समुद्रोऽरुषः सुपर्णो दिवो मध्ये निहितः पृश्निरश्मोक्षा पूर्वस्य पितुर्योनिमा विवेश रजसो वि चक्रमेऽन्तौ पाति स सर्वैर्वेदितव्यः ॥३॥

    पदार्थः

    (उक्षा) सेचकः (समुद्रः) सागरः (अरुषः) सुखप्रापकः (सुपर्णः) शोभनानि पर्णानि पालनानि यस्य सः (पूर्वस्य) पूर्णस्याऽऽकाशादेः (योनिम्) कारणम् (पितुः) पालकस्य (आ) (विवेश) प्रविशति (मध्ये) (दिवः) प्रकाशस्य (निहितः) स्थापितः (पृश्निः) अन्तरिक्षम् (अश्मा) मेघः (वि) (चक्रमे) क्रमते (रजसः) लोकजातस्य (पाति) (अन्तौ) समीपे ॥३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यूयं कार्य्यकारणे विज्ञाय तत्संयोगजन्यानि वस्तूनि कार्य्येषूपयुज्य स्वाभीष्टसिद्धिं सम्पादयत ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या जानना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (समुद्रः) सागर (अरुषः) सुख को प्राप्त करानेवाला (सुपर्णः) सुन्दर पालन जिसके ऐसा और (दिवः) प्रकाश के (मध्ये) मध्य में (निहितः) स्थापित किया गया (पृश्निः) अन्तरिक्ष और (अश्मा) मेघ (उक्षा) सींचनेवाला (पूर्वस्य) पूर्ण आकाश आदि और (पितुः) पालन करनेवाले के (योनिम्) कारण को (आ, विवेश) सब प्रकार प्रविष्ट होता है और (रजसः) लोक में उत्पन्न हुए का (वि, चक्रमे) विशेष करके क्रमण करता और (अन्तौ) समीप में (पाति) रक्षा करता है, वह सब को जानने योग्य है ॥३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोग कार्य्य और कारण को जानकर उनके संयोग से उत्पन्न हुए वस्तुओं को कार्य्यों में उपयुक्त करके अपने अभीष्ट की सिद्धि करें ॥३॥

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    विषय

    पुत्र पुत्रियों को माता का उपदेश ।

    भावार्थ

    भा०-हे पुत्रि ! मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह (उक्षा) वीर्य सेचन एवं गृहस्थ धारण करने में समर्थ हो । वह (समुद्रः ) समुद्र के समान गंभीर, समान भाव से स्त्री के सहयोग में रह कर स्वयं और उस को प्रमोद, रति आदि करने में समर्थ और (अरुपः) स्वयं तेजस्वी और स्त्री पर अनुग्रह बुद्धि वा रोष न करने हारा हो । वह (सुपर्णः) उत्तम पालन करने वाला होकर अपने (पूर्वस्य पितुः) पूर्वक पिता के (योनिम् ) गृह को ( आविवेश ) प्रविष्ट होता है अर्थात् पुरुष अपने पिता के गृह का स्वामी हुआ करता है । (दिवः मध्ये निहितः पृश्निः ) जिस प्रकार आकाश के बीच में स्थित सूर्य ( अश्मा ) व्यापक होकर ( वि चक्रमे ) विविध कार्य करता और ( रजसः अन्तौ पाति ) समस्त संसार के अन्तों, छोरों का भी पालन करता है इसी प्रकार पुरुष भी (दिवः मध्ये ) पृथिवी के बीच (दिवः मध्ये ) व्यवहार में और (दिवः मध्ये ) कामना योग्य अपनी स्त्री के हृदय में ( निहितः ) स्थिर होकर ( पृश्निः ) मेघवत् रस वर्षण, वीर्य निषेक करने में समर्थ और ( अश्मा ) शिला के समान दृढ़ एवं भोक्ता होकर, वा मेघवत् दानशील होकर (वि चक्रमे ) विविध प्रकार से आगे कदम बढ़ावे और ( रजसः अन्तौ ) रजोभाव की दोनों सीमाओं की ( पाति) रक्षा करे। अर्थात् यौवन के आदि और अन्त वा गर्भ काल के आदि अन्त दोनों सीमाओं के बीच काल में अपने और अपने पत्नी के जीवन, बल-वीर्य की रक्षा करे। अथवा ( रजसः अन्तौ) लोकों के दोनों अन्त अर्थात् दोनों मूल कारण रज और वीर्य वा परिमाम रूप पुत्र और पुत्री दोनों की समान भाव से रक्षा करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रतिरथ आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:- १, २, ३, ७ त्रिष्टुप् ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ५ भुरिक् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    आदर्श पुरुष

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र के अनुसार पितृकोटि में प्रवेश करनेवाला और ऊँचा उठ करके 'देव' बनता है। यह (उक्षा) = शक्ति का शरीर में सेचन करनेवाला होता है । यह शरीर में शक्ति का रक्षण ही इसकी सम्पूर्ण उन्नति का मूल है। इस शक्ति रक्षण के कारण यह (समुद्रः) = ज्ञान का समुद्र बनता है अथवा 'स-मुद्' सदा आनन्दमयी वृत्तिवाला होता है। (अरुषः) = क्रोध रहित होता है। (सुपर्णः) = उत्तमता से अपना पालन व पूरण करता है। (पूर्वस्य पितुः) = परमपिता-सर्वमुख्य पिता, प्रभु के (योनिं आविवेश) = गृह में प्रवेश करनेवाला होता है, अर्थात् सब ब्रह्म में निवास करता है । [२] (दिवः मध्ये निहितः) = यह सदा ज्ञान के प्रकाश के मध्य में स्थित होता है, प्रतिक्षण ज्ञान प्राप्ति में लगा होता है। (पृश्नि:) = [संस्पृष्टो मासा नि० २।१४] ज्ञान ज्योति से संस्पृष्ट होता है और (अश्मा) = शरीर में पत्थर के समान दृढ़ होता है । विचक्रमे विशिष्ट गतिवाला होता है, सदा विक्रम के कार्यों को करनेवाला होता है। (रजसः) = रजोगुण के (अन्तौ) = सिरों को पाति बचाता है, अर्थात् रजोगुण की एक सीमा तो वह है जहाँ से इसका प्रारम्भ होता है, नहीं अभी क्रिया न्यूनतम रूप में है। इसका दूसरा सिरा वह है जहाँ क्रिया अति उग्ररूप में है। यह क्रिया के न्यूनतम व उग्रतम दोनों रूपों को छोड़कर, दोनों से अपने को बचाकर, नपी- तुली क्रियावाला होता है। प्रत्येक कार्य को यह युक्तरूप में करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम शक्ति का रक्षण करते हुए सदा ज्ञान की वृद्धि करें और शरीर को दृढ़ बनायें । आदर्श पुरुष का यही लक्षण है 'ज्ञानी- सुदृढ़'। हमारी सब क्रियाएँ नपी-तुली हों ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! तुम्ही कार्यकारण जाणून त्यांच्या संयोगाने उत्पन्न झालेल्या वस्तूंचा कार्यात उपयोग करून आपले इच्छित फल प्राप्त करा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The mighty deep and generous ocean of waters, the blazing sustainer bird of space, the sun, enters in the spatial womb of its mother, divine Nature, fertilized by the original and eternal father creator. Placed in the midst of the heavens of light like a multicolour diamond, it traverses on and on, lights up, sustains and marks the expansive ends of the upper and lower strata of the sphere of heaven.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men know is taught further?

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should know the nature of the ocean which is conveyor of happiness, good sustainer and 'sprinkler (supplier of water), and is established in the middle of the light. The firmament, cloud, the sun are all in the first cause of the ancient and perfect AKASHA (ether). The sun by its light goes around the world and preserves them as from near.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should accomplish all purposes by knowing the law of the cause and effect and the objects produced by their combination and then utilise them properly.

    Foot Notes

    (अरुषः ) सुखप्रापकः । ऋ गतौ - पाणिनीयधातु पाठे । ऋ -प्रापणे गतौ च (काशकृत्स्नधातुपाठे 1, 3, 50 ) ऋ हनिभ्याम् षन् ( उणा 4, 73) अरुषः पुनहिकेलिभ्ये उषच् ( उपा. 4,75) अरुषो बाहुलकात् = Conferrer of happiness. (सुपर्णः) शोभनानि पर्णानि पालनानि यस्य सः । सु + पू पालनपूरणयोः (जुह्यो०) = Good sustainer or cherisher. ( उक्षा ) सेचकः । उक्ष- सेचने (भ्वा० ) = Sprinkle to supply water. (पुश्नि:) अन्तरिक्षम् । पृश्निः इति साधारणनाम दयुलोकान्तरिक्षसाधारणनामानि (N G 1, 4) = Firmament. (अश्मा ) मेघः । अश्मा इति मेघनाम (N G 1, 10) = The

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