ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 47/ मन्त्र 2
ऋषिः - प्रतिक्षत्र आत्रेयः
देवता - देवपत्न्यः
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अ॒जि॒रास॒स्तद॑प॒ ईय॑माना आतस्थि॒वांसो॑ अ॒मृत॑स्य॒ नाभि॑म्। अ॒न॒न्तास॑ उ॒रवो॑ वि॒श्वतः॑ सीं॒ परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी य॑न्ति॒ पन्थाः॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअ॒जि॒रासः॑ । तत्ऽअ॑पः । ईय॑मानाः । आ॒त॒स्थि॒ऽवांसः॑ । अ॒मृत॑स्य । नाभि॑म् । अ॒न॒न्तासः॑ । उ॒रवः॑ । वि॒श्वतः॑ । सी॒म् । परि॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । य॒न्ति॒ । पन्थाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अजिरासस्तदप ईयमाना आतस्थिवांसो अमृतस्य नाभिम्। अनन्तास उरवो विश्वतः सीं परि द्यावापृथिवी यन्ति पन्थाः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअजिरासः। तत्ऽअपः। ईयमानाः आतस्थिऽवांसः। अमृतस्य। नाभिम्। अनन्तासः। उरवः। विश्वतः। सीम्। परि। द्यावापृथिवी इति। यन्ति। पन्थाः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 47; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यैः कार्य्यकारणसन्तताऽनन्तपदार्थान् विज्ञाय कार्य्यसिद्धिः संपादनीया ॥२॥
अन्वयः
येऽजिरास ईयमानास्तदपोऽमृतस्य नाभिमातस्थिवांसोऽनन्तास उरवो विश्वतो द्यावापृथिवी सीमिव परि यन्ति तेषां पन्था विज्ञातव्यः ॥२॥
पदार्थः
(अजिरासः) वेगवन्तः (तदपः) तेषां प्राणान् (ईयमानाः) प्राप्नुवन्तः (आतस्थिवांसः) समन्तात् स्थिताः (अमृतस्य) नाशरहितस्य कारणस्य (नाभिम्) मध्ये (अनन्तासः) अविद्यमानोऽन्तो येषान्ते (उरवः) बहवः (विश्वतः) सर्वतः (सीम्) आदित्यप्रकाश इव (परि) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (पन्थाः) मार्गः ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये आकाशादयोऽनन्ताः पदार्थास्तत्रस्था असङ्ख्या परमाणवश्च कारणमध्ये कारणतो जाता आदित्यप्रकाशवद्विस्तीर्णाः सन्ति ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब मनुष्यों का कार्य कारण से विस्तृत अनन्त पदार्थों को जान कर कार्यसिद्धि करनी चाहिये ॥
पदार्थ
जो (अजिरासः) वेग से युक्त (ईयमानाः) प्राप्त होते हुए (तदपः) उनके प्राणों को (अमृतस्य) नाश से रहित कारण के (नाभिम्) मध्य में (आतस्थिवांसः) सब ओर से स्थित (अनन्तासः) नहीं विद्यमान अन्त जिनका वे (उरवः) बहुत (विश्वतः) सब ओर (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि (सीम्) सूर्य्य के प्रकाश के सदृश (परि) चारों और (यन्ति) प्राप्त होते हैं उनका (पन्थाः) मार्ग जानना चाहिये ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो आकाश आदि अनन्त पदार्थ हैं, उनमें वर्त्तमान असंख्य परमाणु और वे कारण के मध्य में कारण से उत्पन्न हुए सूर्य्य और प्रकाश के सदृश विस्तीर्ण हैं ॥२॥
विषय
पुत्र पुत्रियों को माता का उपदेश ।
भावार्थ
भा०-( अजिरासः ) कभी न नाश होने वाले, वा वेगवान् (तद् अपः ईयमानाः ) उस प्रभु परमेश्वर के उपदिष्ट कर्मों का आचरण करते हुए और (अमृतस्य) अमृतमय मोक्षस्वरूप प्रभु के ( नाभिम् ) बांधने वाले प्रेम वा प्रभु पर ( आ-तस्थिवांसः ) स्थित ( अनन्तासः ) अनन्त, ( उरवः) और बड़े २ ( पन्थाः ) मार्ग ( द्यावा पृथिवी ) सूर्य और पृथिवी के तुल्य स्त्री पुरुषों के सम्बन्ध में (विश्वतः परियन्ति ) सब तरफ़ जारहे हैं। हे पुत्रि ! वा पुत्र ! तू उनको जान । अथवा -( तदपः ईयमानाः ) उस गृहस्थाश्रम कर्म को प्राप्त होने वाले (अमृतस्य नाभिम् आ-तस्थिवासम् ) प्रजा सन्तति के बांधने वाले आश्रय पर स्थित हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रतिरथ आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:- १, २, ३, ७ त्रिष्टुप् ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ५ भुरिक् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
पितृकोटि के पुरुषों का लक्षण
पदार्थ
[१] गतमन्त्र के अनुसार पितृकोटि में पहुँचनेवाले लोग (अजिरास:) = [agile] क्रियाशील होते हैं । (तद् अपः ईयमानाः) = उस उस कर्म के प्रति गतिवाले होते हैं, समयानुसार प्राप्त कर्म को करनेवाले होते हैं। (अमृतस्य नाभिम्) = अमृत के केन्द्र प्रभु में (आतस्थिवांसः) = स्थित होनेवाले होते हैं। प्रभु स्मरणपूर्वक कर्मों को करते हैं । [२] (अनन्तासः) = कर्मों को बीच में ही समाप्त नहीं कर देते, सदा कर्म प्रवृत्त रहते हैं। (उरवः) = विशाल हृदय होते हैं। कर्मों को उदार हृदय से करते हैं। 'उदार धर्ममित्याहुः' इस बात को भूलते नहीं कि संकोच अपवित्रता है, उदारता ही धर्म है। ये (पन्थाः) = पतनशील-क्रियाशील होते हुए (सीम्) = निश्चय से (विश्वतः) = सब दृष्टिकोणों से (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्करूप द्युलोक व शरीर रूप पृथिवी के (परियन्ति) = चारों ओर गति करनेवाले होते हैं। इस बात का सदा ध्यान करते हैं कि उनके किसी कर्म का उनके मस्तिष्क व शरीर पर अवाञ्छनीय प्रभाव न हो। उनके सब कार्य शरीर को तेजस्वी व मस्तिष्क को दीप्स बनानेवाले होते हैं। संक्षेप में, इन पितरों का जीवन क्रियाशील कर्त्तव्यपरायण होता है, प्रभु का इन्हें विस्मरण नहीं होता। कार्यों को बीच में छोड़ देनेवाले नहीं होते। विशाल हृदयता से कर्म करते हुए ये शरीर व मस्तिष्क दोनों को तेज व ज्ञान से दीप्त करनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु स्मरणपूर्वक अपने कर्त्तव्य कर्मों को सदा करनेवाले बनें। हमारे कर्म इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए हों कि उनसे हमारा शरीर तेजस्वी व मस्तिष्क ज्ञानदीप्त बने ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. आकाशात अनंत पदार्थ आहेत. त्यात असंख्य परमाणू आहेत. ते कारणात (प्रकृतीत) असून कारणापासून उत्पन्न झालेल्या सूर्य व प्रकाशाप्रमाणे पसरलेले आहेत. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The radiations of the light of the dawn, as the actions of wise and brilliant parents and teachers, abiding in the centre of immortal eternity and flowing therefrom, move all round fast and ceaseless, vast and endless, on their paths across and over heaven and earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Men should know the properties of the numberless articles which cause and effect and accomplish the works.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Men should know the methodology of those endless objects which are speedy, reaching the Pranas of men, remaining in the orb of the first eternal cause (matter) which go around the sky and earth like the light of the sun.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There are one sky and other endless things and numberless atoms within, born from the eternal first cause-Primordial Matter which are spread like the light of the sun.
Foot Notes
(अजिरासः ) वेगवन्त: । अज गतिक्षेपणयोः (भ्वा० ) । 'अंत गत्यर्थंकः । = Speedy. (अमृतस्य ) नाशरहितस्य कारणस्य = Of the eternal cause (matter). (सीम् ) आदित्यप्रकाश इव । सीमिति परिग्रहर्थीयः । विसीमतः सुरुचो वेन आवः - व्यावृणोत् सर्वतः आदित्यः 1, 3, 8 = Which are like the light of the sun.
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