ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 47/ मन्त्र 6
ऋषिः - प्रतिरथ आत्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वि त॑न्वते॒ धियो॑ अस्मा॒ अपां॑सि॒ वस्त्रा॑ पु॒त्राय॑ मा॒तरो॑ वयन्ति। उ॒प॒प्र॒क्षे वृष॑णो॒ मोद॑माना दि॒वस्प॒था व॒ध्वो॑ य॒न्त्यच्छ॑ ॥६॥
स्वर सहित पद पाठवि । त॒न्व॒ते॒ । धियः॑ । अ॒स्मै॒ । अपां॑सि । वस्त्रा॑ । पु॒त्राय॑ । मा॒तरः॑ । व॒य॒न्ति॒ । उ॒प॒ऽप्र॒क्षे । वृष॑णः । मोद॑मानाः । दि॒वः । प॒था । व॒ध्वः॑ । य॒न्ति॒ । अच्छ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि तन्वते धियो अस्मा अपांसि वस्त्रा पुत्राय मातरो वयन्ति। उपप्रक्षे वृषणो मोदमाना दिवस्पथा वध्वो यन्त्यच्छ ॥६॥
स्वर रहित पद पाठवि। तन्वते। धियः। अस्मै। अपांसि। वस्त्रा। पुत्राय। मातरः। वयन्ति। उपऽप्रक्षे। वृषणः। मोदमानाः। दिवः। पथा। वध्वः। यन्ति। अच्छ ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 47; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैर्युवावस्थायामेव स्वयंवरो विवाहः कर्त्तव्य इत्याह ॥
अन्वयः
या दिवो मोदमाना वध्वः स्त्रियः पथोपप्रक्षे वृषणोऽच्छ यन्ति ता मातरोऽस्मै पुत्राय धियोऽपांसि वि तन्वते वस्त्रा वयन्ति ॥६॥
पदार्थः
(वि) (तन्वते) विस्तारयन्ति (धियः) प्रज्ञाः (अस्मै) व्यवहारसिद्धाय (अपांसि) कर्म्माणि (वस्त्रा) वस्त्राणि (पुत्राय) (मातरः) (वयन्ति) निर्मिमते (उपप्रक्षे) सम्पर्के (वृषणः) यूनः (मोदमानाः) आनन्दन्त्यः (दिवः) कामयमानाः (पथा) गृहाश्रममार्गेण वर्त्तमानाः (वध्वः) युवत्यः स्त्रियः (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (अच्छ) ॥६॥
भावार्थः
ये स्त्रीपुरुषा ब्रह्मचर्य्येण विद्या अधीत्य युवावस्थास्थाः सन्तो गृहाश्रमं कामयमानाः परस्परस्मिन् प्रीत्या स्वयंवरं विवाहं विधाय धर्म्येण सन्तानानुत्पाद्य सुशिक्ष्य शरीरात्मबलं विस्तृणन्ति वस्त्रैः शरीरमिव गृहाश्रमव्यवहारमाच्छाद्यानन्दन्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों को चाहिये कि युवा अवस्था ही में स्वयंवर विवाह करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (दिवः) कामना और (मोदमानाः) आनन्द करती हुई (वध्वः) युवावस्थायुक्त स्त्रियाँ (पथा) गृहाश्रम के मार्ग से वर्त्तमान (उपप्रक्षे) सम्बन्ध में (वृषणः) युवा पुरुषों को (अच्छ) उत्तम प्रकार (यन्ति) प्राप्त होती हैं, वे (मातरः) माता (अस्मै) इस व्यवहार से सिद्ध (पुत्राय) पुत्र के लिये (धियः) बुद्धियों और (अपांसि) कर्म्मों को (वि, तन्वते) विस्तार करती हैं और (वस्त्रा) वस्त्रों को (वयन्ति) बनाती हैं ॥६॥
भावार्थ
जो स्त्री और पुरुष ब्रह्मचर्य्य से विद्याओं को पढ़ कर युवावस्था में वर्त्तमान गृहाश्रम की कामना करते हुए परस्पर प्रीति से स्वयंवर विवाह करके धर्म से सन्तानों को उत्पन्न कर और उत्तम प्रकार शिक्षा देकर शरीर और आत्मा के बल का विस्तार करते हैं और जैसे वस्त्रों से शरीर को वैसे गृहाश्रम के व्यवहार का आच्छादन करके आनन्द करते हैं ॥६॥
विषय
सन्तति के प्रति स्त्रियों का कर्त्तव्य । सन्तान बनाने में माता के उत्तम संकल्पों की आवश्यकता ।
भावार्थ
भा०-जिस प्रकार ( मातरः ) माताएं ( पुत्राय ) अपने पुत्र को पहनाने के लिये ( वस्त्रा वयन्ति ) वस्त्रों को एक २ तन्तु करके बुनती हैं । उसी प्रकार वे ( अस्मै ) इस पुत्र या सन्तान के लिये ( धियः) संकल्प विकल्प तथा ( अपांसि ) नाना प्रकार के उत्तम कर्म (वि तन्वते) किया करे। माताओं के उत्तम कर्म और संकल्प ही सन्तान की रक्षा, पालन पोषण करते और उनको जीवन काल में सद्गुणों से सुशोभित करते हैं । ( वध्वः ) उत्तम वधुएं (अस्मै ) इस पुत्र के लाभ के लिये ही ( वृषणः उप प्रक्षे ) बलवान् वीर्य सेचन में समर्थ पुरुषों के समीप आलिंगन करने के लिये (दिवः पथा ) पुत्र कामना के आनन्दप्रद ओर हर्षोद्रेक के मार्ग से ( मोदमानाः ) अति प्रसन्नता अनुभव करती हुई ( अच्छ यन्ति ) उन्हें प्राप्त होती हैं । अथवा (दिवः वृषणः उपप्रक्षे पथा यन्ति ) वीर्यवान् पुरुष के आलिंगन करने के लिये विवाहित स्त्रियें तेजस्वी पति के ही पीछे उसके मार्ग से जाती हैं । पुत्राभिलाषा सर्वत्र विद्यमान है, तब हे माताओ ! उसको उत्तम बनाने के लिये तुम सदा उत्तम कर्म और उत्तम संकल्प किया करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रतिरथ आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:- १, २, ३, ७ त्रिष्टुप् ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ५ भुरिक् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
वृषणो मोदमाना:
पदार्थ
[१] (अस्मा) = इस प्रभु की प्राप्ति के लिये (धियः) = बुद्धियों को (अपांसि) = और कर्मों को (वितन्वते) = विस्तृत करते हैं, बुद्धिपूर्वक किये गये कर्म प्रभु-पूजन का साधन बनते हैं। जिस प्रकार (मातरः) = माताएँ पुत्राय पुत्र के लिये (वस्त्रा) = वस्त्रों को वयन्ति बुनती हैं, उसी प्रकार उपासक प्रभु प्राप्ति के लिये बुद्धियों व कर्मों का विस्तार करता है। [२] (उपप्रक्षे) = उस प्रभु के सम्पर्क में ये (वृषण:) = शक्तिशाली बनते हैं और (मोदमाना:) = आनन्द का अनुभव करते हैं। (वध्वः) = कर्मों का वहन करनेवाले (दिवस्पथा) = ज्ञान के मार्ग से गति करते हुए अच्छ यन्ति उस प्रभु की ओर जाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु प्राप्ति के लिये उपासक का मार्ग यही है कि बुद्धियों व कर्मों का विस्तार करे। बुद्धिपूर्वक कर्मों से ही प्रभु-पूजन होता है। प्रभु सम्पर्क से शक्ति व आनन्द की प्राप्ति होती है।
मराठी (1)
भावार्थ
जे स्त्री-पुरुष ब्रह्मचर्याने विद्या शिकून युवावस्थेत गृहस्थाश्रमाची कामना करत परस्पर प्रीतीने स्वयंवर विवाह करून धर्माने संतान उत्पन्न करून उत्तम प्रकारे शिक्षण देऊन शरीर व आत्म्याचे बळ वाढवितात व जसे वस्त्रांनी शरीराचे आच्छादन केले जाते. तसे गृहस्थाश्रमाच्या व्यवहाराचे आच्छादन करून आनंद भोगतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Celebrants compose songs of adoration from their heart and intellect and extend yajnic homage up to this sun by the paths of light and fire just as mothers weave and sew clothes for the child and joyous wives eagerly move to join their generous husbands.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The people should marry in youth and by the process of Svayamvara (self-choice) is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The brides desiring youthful and cheerful matches come in contact through marriage with virile husbands and become mothers, wear garments for their children and do other useful acts. So you all should also do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The youth receive education with Brahmacharya and when young desiring household life enter into wedlock through Svayamvara (self-choice) with love. They beget children righteously, develop the strength of body and soul, and thus enjoy bliss having discharged domestic duties, like they cover body with clothes.
Foot Notes
(दिवः) कामयमाना: = Desiring. (यथा) गृहाश्रममार्गेण वर्तमानाः । = Trading the path of household life,
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