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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 47/ मन्त्र 7
    ऋषिः - प्रतिरथ आत्रेयः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    तद॑स्तु मित्रावरुणा॒ तद॑ग्ने॒ शं योर॒स्मभ्य॑मि॒दम॑स्तु श॒स्तम्। अ॒शी॒महि॑ गा॒धमु॒त प्र॑ति॒ष्ठां नमो॑ दि॒वे बृ॑ह॒ते साद॑नाय ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । अ॒स्तु॒ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । तत् । अ॒ग्ने॒ । शम् । योः । अ॒स्मभ्य॑म् । इ॒दम् । अ॒स्तु॒ । श॒स्तम् । अ॒शी॒महि॑ । गा॒धम् । उ॒त । प्र॒ति॒ऽस्थाम् । नमः॑ । दि॒वे । बृ॒ह॒ते । साद॑नाय ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदस्तु मित्रावरुणा तदग्ने शं योरस्मभ्यमिदमस्तु शस्तम्। अशीमहि गाधमुत प्रतिष्ठां नमो दिवे बृहते सादनाय ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। अस्तु। मित्रावरुणा। तत्। अग्ने। शम्। योः। अस्मभ्यम्। इदम्। अस्तु। शस्तम्। अशीमहि। गाधम्। उत। प्रतिऽस्थाम्। नमः। दिवे। बृहते। सादनाय ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 47; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मित्रावरुणा अध्यापकोपदेशकौ ! युवयोः सङ्गेन तच्छं वयमशीमहि। हे अग्नेऽस्मभ्यं तदस्तु योरिदं शस्तमस्तु गाधमुत प्रतिष्ठां प्राप्य बृहते सादनाय दिवे नमोऽस्तु ॥७॥

    पदार्थः

    (तत्) (अस्तु) (मित्रावरुणा) प्राणोदानाविव मातापितरौ (तत्) (अग्ने) पावक (शम्) सुखम् (योः) दुःखात्पृथग्भूतम् (अस्मभ्यम्) (इदम्) (अस्तु) (शस्तम्) प्रशंसनीयम् (अशीमहि) प्राप्नुयाम (गाधम्) गभीरम् (उत) (प्रतिष्ठाम्) (नमः) सत्कारम् (दिवे) कामयमानाय (बृहते) महते (सादनाय) स्थितिमते ॥७॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या आप्तान् विदुषोऽध्यापकान् सत्कुर्वन्ति त एव सुखं लभन्ते ॥७॥ अत्र स्त्रीपुरुषादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति सप्तचत्वारिंशत्तमं सूक्तं प्रथमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मित्रावरुणा) प्राण और उदान वायु के सदृश वर्त्तमान माता-पिता तथा अध्यापक और उपदेशक जन ! आप दोनों के सङ्ग से (तत्) उस (शम्) सुख को हम लोग (अशीमहि) प्राप्त होवें और (अग्ने) हे अग्ने ! (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (तत्) वह (अस्तु) हो। (योः) दुःख से पृथग्भूत (इदम्) यह (शस्तम्) प्रशंसा करने योग्य (अस्तु) हो और (गाधम्) गम्भीर (उत) भी (प्रतिष्ठाम्) आदर को प्राप्त हो कर (बृहते) बड़े (सादनाय) स्थितिमान् के लिये और (दिवे) कामना करते हुए के लिये (नमः) सत्कार हो ॥७॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य यथार्थवक्ता विद्वानों और अध्यापकों का सत्कार करते हैं, वे ही सुख को प्राप्त होते हैं ॥७॥ इस सूक्त में स्त्री पुरुषादि के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सैंतालीसवाँ सूक्त और पहिला वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    वर वधू, माता पिताओं को उपदेश ।

    भावार्थ

    भा०-हे (मित्रावरुणा ) एक दूसरे को स्नेह करने वालो ! हे एक दूसरे को वरण करनेवाले परस्पर के मित्र वर वधू ! माता पिता जनो ! हे ( अग्ने ) विद्वन् ! ( अस्मभ्यम् ) हमारे लिये ( इदम् ) यह ऐसा उपदेश ( शस्तम् ) आप बराबर किया करो और ( तत् ) वह ( शं योः अस्तु ) शान्तिकारक और दुःखनाशक हो । (उत) और हम लोग ( गाधम् अशीमहि ) मनचाहा ऐश्वर्य पदार्थ भोग करें ( उत ) और ( प्रतिष्ठाम् अशीमति) प्रतिष्ठा, वंश की स्थिरता और कीर्त्ति प्राप्त करें। (दिवे ) ज्ञान और तेज प्राप्त करने के लिये ( बृहते ) बड़े भारी ( सादने ) उद्देश्य को पूर्ण करने के लिये हम ( नमः अशीमहि ) विनय, बल, तेज प्राप्त करें। इति प्रथमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रतिरथ आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:- १, २, ३, ७ त्रिष्टुप् ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ५ भुरिक् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    शं योः गाधं प्रतिष्ठाम्

    पदार्थ

    [१] हे (मित्रावरुणा) = स्नेह व निर्देषता की देवताओ ! (तत्) = वह (शम्) = शान्ति (अस्तु) = हो । हमें स्नेह व निर्देषता के धारण से शान्ति का लाभ हो। हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (तद्) = वह (योः) = भयों का यावन [अमिश्रण] (अस्तु) = हो । (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (इदम्) = यह शान्ति व निर्भयता का जीवन (शस्तं अस्तु) = प्रशंसनीय हो । [२] हम 'मित्र, वरुण व अग्नि' की आराधना करते हुए (गाधम्) = [प्रतिष्ठा] स्थिति को प्राप्त करें अथवा [लिप्सा] प्राप्त करने के लिये (इष्ट वस्तु) = को (अशीमहि) = प्राप्त करनेवाले हों। (उत) = और (प्रतिष्ठाम्) = यश व कीर्ति को प्राप्त करें। इस प्रकार का जीवन बनाकर उस (दिवे) = प्रकाशमय (बृहते) = महान् (सादनाय) = आश्रय के लिये (नमः) = नमस्कार करें । यह प्रभु का स्मरण ही हमें निरभिमान बनायेगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम 'स्नेह, निर्देषता व प्रगति की भावना' को धारण करें। इससे हमें शान्ति, निर्भयता, इष्टवस्तुलाभ व प्रतिष्ठा की प्राप्ति होगी। ऐसा होने पर निरभिमान बने रहने के लिये हम प्रभु के प्रति नतमस्तक हों । यह प्रभु की उपासना से दीप्ति को प्राप्त करके 'प्रतिभानु' बनता है, दीप्त प्रत्येक इन्द्रियवाला । यह आत्रेय तो होता ही है, 'काम-क्रोध-लोभ' से दूर । यह प्रार्थना करता है -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे आप्त विद्वान व अध्यापक यांचा सत्कार करतात त्यांना सुख मिळते. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, lord of love and judgement, sun and the sea, day and night, mother and father, prana and udana energies, O Agni, yajna fire purifier, revered teacher, teacher pioneer and giver of enlightenment, may this cherished song of ours be for our peace and blessedness which is all time free from suffering and pain. May we attain a home and haven of high excellence and unshakable honour and prestige. Salutations to the great and glorious heaven of light, eternal and imperishable!

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of married life is dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers! may we enjoy peace and un-mixed happiness by your association. O leader! purifying like fire, may we obtain stability, permanence and honour. Revere that radiant and mighty enlightened person.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons only enjoy happiness who always honour absolutely truthful teachers and other enlightened persons.

    Foot Notes

    (योः ) दुःखात्पृथग्भूतम् | यो। यावनं च भयानाम् (NKTI.) = Unmixed with misery. (मित्रावरुणा ) प्राणोदानाविव मातापितरौ । प्राणोदानो वे मित्रावरुणौ ( Stph 1, 8, 3, 12, 6, 1, 16 ) = Father and mother who are like Prana and Udāna.

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