ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 54/ मन्त्र 12
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
तं नाक॑म॒र्यो अगृ॑भीतशोचिषं॒ रुश॒त्पिप्प॑लं मरुतो॒ वि धू॑नुथ। सम॑च्यन्त वृ॒जनाति॑त्विषन्त॒ यत्स्वर॑न्ति॒ घोषं॒ वित॑तमृता॒यवः॑ ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठतम् । नाक॑म् । अ॒र्यः । अगृ॑भीतऽशोचिषम् । रुश॑त् । पिप्प॑लम् । म॒रु॒तः॒ । वि । धू॒नु॒थ॒ । सम् । अ॒च्य॒न्त॒ । वृ॒जना॑ । अति॑त्विषन्त । यत् । स्वर॑न्ति । घोष॑म् । विऽत॑तम् । ऋ॒त॒ऽयवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं नाकमर्यो अगृभीतशोचिषं रुशत्पिप्पलं मरुतो वि धूनुथ। समच्यन्त वृजनातित्विषन्त यत्स्वरन्ति घोषं विततमृतायवः ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठतम्। नाकम्। अर्यः। अगृभीतऽशोचिषम्। रुशत्। पिप्पलम्। मरुतः। वि। धूनुथ। सम्। अच्यन्त। वृजना। अतित्विषन्त। यत्। स्वरन्ति। घोषम्। विऽततम्। ऋतऽयवः ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 54; मन्त्र » 12
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
विषय - चमकते मेघोंवत् शत्रु पर वीरों के आक्रमण की आज्ञा ।
भावार्थ -
भा०-जिस प्रकार ( मरुतः पिप्पलं वि धुन्वन्ति ) वायु गण मेघस्थ जल को कंपाते हैं, ( अगृभीत-शोचिषं नाकं वि धुन्वन्ति ) जिसके तेज को कोई पकड़ न सके ऐसे विद्युन्मय मेघ को भी वे कंपा देते हैं तब (वृजना सम् अच्यन्त ) जल एकत्र हो जाते हैं और ( वृजना अतित्विषन्त ) आकाश के भाग खूब चमक उठते हैं, (ऋतायवः घोषं स्वरन्ति) जल युक्त मेघ गर्जन भी करते हैं उसी प्रकार हे ( मरुतः ) प्रजा के वीर, व्यापारी एवं विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (अर्यः ) स्वामी, राजा के तुल्य ही ( तं ) उस (अग्रभीत-शोचिषं ) अग्निवत् असह्य तेज को धारण करने वाले ( नाकम् ) अति सुखमय, ( रुशत्) चमचमाते, (पिप्पलं ) ऐश्वर्यवान् शत्रु को भी (वि धूनुथ) विशेष रूप से कंपावे । (ऋतायवः) अन्न, ज्ञान और धन के इच्छुक लोग पद पद पर ( सम् अच्यन्त ) अच्छी प्रकार सत्संग किया करें, (वृजना ) अपने गमनयोग्य मार्गों को ( अतित्विषन्त ) खूब प्रकाशित करे और स्वयं भी प्रकाशित हों। और (ऋतायवः) सत्य, ज्ञान, धन के इच्छुक पुरुष भी ( यत् विततं ) विस्तृत ( घोषं स्वरन्ति ) जिसके उपदेश आज्ञावचन को प्राप्त करते हैं उसको प्रसन्न वा प्राप्त करो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ३, ७, १२ जगती । २ विराड् जगती । ६ भुरिग्जगती । ११, १५. निचृज्जगती । ४, ८, १० भुरिक् त्रिष्टुप । ५, ९, १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
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