ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 68/ मन्त्र 1
आ शु॑भ्रा यातमश्विना॒ स्वश्वा॒ गिरो॑ दस्रा जुजुषा॒णा यु॒वाको॑: । ह॒व्यानि॑ च॒ प्रति॑भृता वी॒तं न॑: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । शु॒भ्रा॒ । या॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । सु॒ऽअश्वा॑ । गिरः॑ । द॒स्रा॒ । जु॒जु॒षा॒णा । यु॒वाकोः॑ । ह॒व्यानि॑ । च॒ । प्रति॑ऽभृता । वी॒तम् । नाः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ शुभ्रा यातमश्विना स्वश्वा गिरो दस्रा जुजुषाणा युवाको: । हव्यानि च प्रतिभृता वीतं न: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । शुभ्रा । यातम् । अश्विना । सुऽअश्वा । गिरः । दस्रा । जुजुषाणा । युवाकोः । हव्यानि । च । प्रतिऽभृता । वीतम् । नाः ॥ ७.६८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 68; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
विषय - अश्वी, रथी-सारथिवत् स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
हे ( अश्विना ) उत्तम अश्वों के स्वामी, रथी सारथीवत् इन्द्रियों को वश करने वाले स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( दस्रा ) दुःखों का नाश करने में तत्पर होकर ( युवाकोः ) तुम दोनों को चाहने वाले मुझ विद्वान् की ( गिरः ) उपदेश वाणियों को ( जुजुषाणा ) प्रेम से सेवन करते हुए ( शुभ्रा ) उत्तम गुणों, आभरणों से सुशोभित और (सु-अश्वा) उत्तम अश्वारूढ़ वीरवत्, उत्तम अश्ववत्, उत्तम विद्या में गतिशील, सुदृढ़ शरीर होकर ( आ यातम् ) आओ । ( नः ) हमारे ( प्रति-भृता ) एवज़ में दिये भरण पोषणार्थ ( हव्यानि ) उत्तम अन्नों का ( वीतम् ) भोजन करो । इसी प्रकार गृहस्थी लोग नवशिक्षित, स्नातक स्त्रातिकाओं और नवविवाहितों का आदर किया करें ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, ६, ८ साम्नी त्रिष्टुप् । २, ३, ५ साम्नी निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ७ साम्नी भुरिगासुरी विराट् त्रिष्टुप् । निचृत् त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूकम्॥
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