ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 90/ मन्त्र 3
रा॒ये नु यं ज॒ज्ञतू॒ रोद॑सी॒मे रा॒ये दे॒वी धि॒षणा॑ धाति दे॒वम् । अध॑ वा॒युं नि॒युत॑: सश्चत॒ स्वा उ॒त श्वे॒तं वसु॑धितिं निरे॒के ॥
स्वर सहित पद पाठरा॒ये । नु । यम् । ज॒ज्ञतुः॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । इ॒मे इति॑ । रा॒ये । दे॒वी । धि॒षणा॑ । धा॒ति॒ । दे॒वम् । अध॑ । वा॒युम् । नि॒ऽयुतः॑ । स॒श्च॒त॒ । स्वाः । उ॒त । श्वे॒तम् । वसु॑ऽधितिम् । नि॒रे॒के ॥
स्वर रहित मन्त्र
राये नु यं जज्ञतू रोदसीमे राये देवी धिषणा धाति देवम् । अध वायुं नियुत: सश्चत स्वा उत श्वेतं वसुधितिं निरेके ॥
स्वर रहित पद पाठराये । नु । यम् । जज्ञतुः । रोदसी इति । इमे इति । राये । देवी । धिषणा । धाति । देवम् । अध । वायुम् । निऽयुतः । सश्चत । स्वाः । उत । श्वेतम् । वसुऽधितिम् । निरेके ॥ ७.९०.३
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 90; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
विषय - सभापति के कर्त्तव्य । प्रजाजन स्त्री-पुरुषों के भव्य कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
(इमे रोदसी) आकाश और भूमि के समान माता और पिता, राजसभा और प्रजासभा दोनों मिलकर (राये) राष्ट्र के ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये (नु) ही (यं) जिसको ( जज्ञतुः ) उत्पन्न करते और (यं देवम्) जिस विजिगीषु को ( धिषणा देवी ) सर्वोपरि विद्यमान विद्वत्सभा भी (राये ) ऐश्वर्य की रक्षा के लिये (धाति) स्थापित करती है उस (वायुं ) शत्रुओं को प्रबल वायुवत् मूल से उखाड़ देने में समर्थ पुरुष को ( स्वाः ) उसके अपनी ( नियुतः ) लक्षों सेनाएं और प्रजाएं ( सश्चत ) प्राप्त होती हैं (उत ) और उसी ( श्वेतं ) समृद्ध, एवं शुद्धाचारवान् को ( निरे के ) सर्वातिशायी पद पर ( वसु-धितिम्) ऐश्वर्य की ख्याति रखने वाला जान कर प्राप्त होते हैं ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठ ऋषिः ॥ १—४ वायुः। ५—७ इन्द्रवायू देवते । छन्दः—१, २, ७ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
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