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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 100/ मन्त्र 4
    ऋषिः - नेमो भार्गवः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒यम॑स्मि जरित॒: पश्य॑ मे॒ह विश्वा॑ जा॒तान्य॒भ्य॑स्मि म॒ह्ना । ऋ॒तस्य॑ मा प्र॒दिशो॑ वर्धयन्त्यादर्दि॒रो भुव॑ना दर्दरीमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । अ॒स्ति॒ । ज॒रि॒त॒रिति॑ । पश्य॑ । मा॒ । इ॒ह । विश्वा॑ । जा॒तानि॑ । अ॒भि । अ॒स्मि॒ । म॒ह्ना । ऋ॒तस्य॑ । मा॒ । प्र॒ऽदिशः॑ । व॒र्ध॒य॒न्ति॒ । आ॒ऽद॒र्दि॒रः । भुव॑ना । द॒र्द॒री॒मि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमस्मि जरित: पश्य मेह विश्वा जातान्यभ्यस्मि मह्ना । ऋतस्य मा प्रदिशो वर्धयन्त्यादर्दिरो भुवना दर्दरीमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । अस्ति । जरितरिति । पश्य । मा । इह । विश्वा । जातानि । अभि । अस्मि । मह्ना । ऋतस्य । मा । प्रऽदिशः । वर्धयन्ति । आऽदर्दिरः । भुवना । दर्दरीमि ॥ ८.१००.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 100; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    इस प्रकार संदिग्ध हृदय वाले स्तोताजन के प्रति साक्षात् प्रभु का वचन सन्देह निवृत्यर्थ इस प्रकार है—हे (जरितः) स्तुतिकर्त्तः ! ( अयम् अस्मि ) मैं यह हूं। ( पश्य मा इह ) मुझे तू यहां इस जगत् में इस रूप में देख । मैं ( मह्ना ) महान् सामर्थ्य से ( विश्वा जातानि अभि अस्मि ) समस्त पदार्थों को अपने वश किये हूं। (ऋतस्य) सत्य ज्ञान के ( प्र-दिशः ) उत्तम कोटि के दिखाने वा उपदेश करने वाले शास्ता गुरुजन ( मा वर्धयन्ति ) मुझे ही बढ़ाते, मेरी ही महिमा का विस्तार करते हैं। मैं ही ( आदर्दिरः ) सबको छिन्न भिन्न करने वाला हूं। ( भुवना) समस्त उत्पन्न लोकों को भी ( दर्दरीमि ) प्रलय रूप से परमाणु २, छिन्न भिन्न करता हूं। जब तक जीव अर्थात् देह का नायक ‘नेम’ देह के सुखों में मग्न रहता है तब वह प्रभु को भूल जाता है। पर जब वह संकट या दुःखदशा में अपनी चलती नहीं देखता और बन्धु बान्धवों और अपने २ देह का भी नाश होता देखता है तब वह प्रभु की महती सत्ता को अनुभव करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नेमो भार्गवः। ४, ५ इन्द्र ऋषिः॥ देवताः—१—९, १२ इन्द्रः। १०, ११ वाक्॥ छन्दः—१, ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५, १२ त्रिष्टुप्। १० विराट् त्रिष्टुप्। ६ निचृज्जगती। ७, ८ अनुष्टुप्। ९ निचृदनुष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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