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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीचः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - आर्चीगायत्री स्वरः - षड्जः

    योनि॒मेक॒ आ स॑साद॒ द्योत॑नो॒ऽन्तर्दे॒वेषु॒ मेधि॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    योनि॑म् । एकः॑ । आ । स॒सा॒द॒ । द्योत॑नः । अ॒न्तः । दे॒वेषु॑ । मेधि॑रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    योनिमेक आ ससाद द्योतनोऽन्तर्देवेषु मेधिरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    योनिम् । एकः । आ । ससाद । द्योतनः । अन्तः । देवेषु । मेधिरः ॥ ८.२९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    ( एकः ) एक अद्वितीय, ( मेधिरः ) सब शत्रुओं को हनन करने, सबके साथ संगति करने में समर्थ एवं उत्तम बुद्धिमान् ( द्योतनः ) सब पदार्थों को प्रकाशित करने वाला, ( देवेषु अन्तः ) इन्द्रियों के बीच, आत्मा के तुल्य, समस्त पृथिव्यादि पदार्थों के बीच में, ( योनिम् ) सब संसार के मूलकारण भूत प्रकृति को, गृह को गृहपति के समान (आससाद) अध्यक्ष रूप से अपने वश करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीच ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, २ आर्ची गायत्री। ३, ४, १० आर्ची स्वराड् गायत्री। ५ विराड् गायत्री। ६—९ आर्ची भुरिग्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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