ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीचः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - आर्चीगायत्री
स्वरः - षड्जः
योनि॒मेक॒ आ स॑साद॒ द्योत॑नो॒ऽन्तर्दे॒वेषु॒ मेधि॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठयोनि॑म् । एकः॑ । आ । स॒सा॒द॒ । द्योत॑नः । अ॒न्तः । दे॒वेषु॑ । मेधि॑रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
योनिमेक आ ससाद द्योतनोऽन्तर्देवेषु मेधिरः ॥
स्वर रहित पद पाठयोनिम् । एकः । आ । ससाद । द्योतनः । अन्तः । देवेषु । मेधिरः ॥ ८.२९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Another, seated in its own place, wise and illuminant is venerable among the divinities. (This divinity is interpreted as Agni, the eye, and truth.)
मराठी (1)
भावार्थ
शरीरात नयन देवाचे प्रधान स्थान आहे. प्रथम माणसाची बुद्धी यामुळे वाढते, कारण यामुळे लहान बालकाची जिज्ञासा शक्ती वाढते. ॥२॥
संस्कृत (1)
विषयः
चक्षुर्देवं दर्शयति ।
पदार्थः
देवेषु=देवानामिन्द्रियाणाम् । अन्तर्मध्ये । द्योतनः=प्रकाशमानः । मेधिरः=मेधावी=मेधाप्रदो=बुद्धिदः । एकश्चक्षुर्देवः । योनिम्=प्रधानस्थानम् । आससाद=प्राप्नोति ॥२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
चक्षुदेव को दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(देवेषु) इन्द्रियों के (अन्तः) मध्य (द्योतनः) स्वतेज से प्रकाशमान और (मेधिरः) बुद्धिप्रद (एकः) एक नयनरूप देव (योनिम्) प्रधानस्थान (आससाद) पाए हुए हैं ॥२ ॥
भावार्थ
शरीर में नयन देव का प्रधान आसन है । प्रथम मनुष्य की बुद्धि इससे बढ़ती है, क्योंकि इससे देख-देखकर शिशु में जिज्ञासा शक्ति बढ़ती जाती है ॥२ ॥
विषय
उसके महान् अद्भुत कर्म ।
भावार्थ
( एकः ) एक अद्वितीय, ( मेधिरः ) सब शत्रुओं को हनन करने, सबके साथ संगति करने में समर्थ एवं उत्तम बुद्धिमान् ( द्योतनः ) सब पदार्थों को प्रकाशित करने वाला, ( देवेषु अन्तः ) इन्द्रियों के बीच, आत्मा के तुल्य, समस्त पृथिव्यादि पदार्थों के बीच में, ( योनिम् ) सब संसार के मूलकारण भूत प्रकृति को, गृह को गृहपति के समान (आससाद) अध्यक्ष रूप से अपने वश करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीच ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, २ आर्ची गायत्री। ३, ४, १० आर्ची स्वराड् गायत्री। ५ विराड् गायत्री। ६—९ आर्ची भुरिग्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
द्योतन:- मेधिरः [अग्निः]
पदार्थ
[१] वह (एकः) = अद्वितीय प्रभु (योनिम्) = मूल कारण प्रकृति को (आससाद) = अध्यक्षरूपेण अधिष्ठित करता है। उस प्रभु से अधिष्ठित प्रकृति ही तो सब लोक-लोकान्तरों को प्रसूत करती है । [२] (देवेषु अन्तः) = सब सूर्यादि देवों में (द्योतनः) = दीप्ति को देनेवाला है, तथा [देवेषु अन्तः = ] सब विद्वानों में (मेधिरः) = मेधा बुद्धि को यह देनेवाला है।
भावार्थ
भावार्थ- वह अद्वितीय प्रभु प्रकृति का अधिष्ठाता है, वह हमें सुबुद्धि प्रदान करे।
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