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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 29/ मन्त्र 8
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीचः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - आर्चीभुरिग्गायत्री स्वरः - षड्जः

    विभि॒र्द्वा च॑रत॒ एक॑या स॒ह प्र प्र॑वा॒सेव॑ वसतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विऽभिः॑ । द्वा । च॒र॒तः॒ । एक॑या । स॒ह । प्र । प्र॒वा॒साऽइ॑व । व॒स॒तः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विभिर्द्वा चरत एकया सह प्र प्रवासेव वसतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽभिः । द्वा । चरतः । एकया । सह । प्र । प्रवासाऽइव । वसतः ॥ ८.२९.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 29; मन्त्र » 8
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Two with flights like desire and ambition move around with one, intelligence, and reach wherever they choose to distant places like travellers. (These are the Ashvins, twin divinities of nature’s dynamics, or, at the individual’s level, ambition and ego which fly on the wings of imagination.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मन व अहंकार हे दोन्ही जीवाला कुमार्गावर घेऊन जाणारे आहेत. त्यासाठी त्यांना आपल्या वशमध्ये ठेवून उत्तमोत्तम कार्य सिद्ध करावे. ॥८॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनोऽहङ्कारौ दर्शयति ।

    पदार्थः

    द्वा=द्वौ देवौ=मनोऽहंकारौ । विभिः=विर्वासना, ताभिर्वासनाभिः । सह चरतः । पुनः । एकया=बुद्ध्या । सह । प्रवसतः=प्रवासं कुरुतः । अत्र दृष्टान्तः । प्रवासा इव । यथा द्वौ प्रवासिनौ मिलित्वा चरतस्तद्वत् ॥८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मन और अहङ्कार दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (द्वा) दो देव मन और अहङ्कार (विभिः) वासनाओं के साथ (चरतः) चलते हैं और (एकया) एक बुद्धि के (सह) साथ (प्र+वसतः) प्रवास करते हैं । यहाँ दृष्टान्त देते हैं (प्रवासा+इव) जैसे दो प्रवासी सदा मिलकर चलते हैं । तद्वत् । मन और अहङ्कार बुद्धिरूप पत्नी के साथ सदा चलायमान रहते हैं ॥८ ॥

    भावार्थ

    मन और अहङ्कार ये दोनों जीवों को अपथ में ले जानेवाले हैं । अतः इनको अपने वश में करके उत्तमोत्तम कार्य्य सिद्ध करें ॥८ ॥

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    विषय

    जीव और प्रभु का प्रकृति के साथ वर्णन ।

    भावार्थ

    ( प्रवासा इव एकया चरतः) जिस प्रकार दो प्रवासी एक स्त्री के साथ ( प्रवसतः ) प्रवास करें उसी प्रकार ( द्वा ) दो जीवात्मा और परमात्मा ( विभिः ) अपनी विषयभोग साधन इन्द्रियों, प्राणों, और ईश्वर व्यापक सामर्थ्यो से ( एकया सह ) एक प्रकृति के साथ एक काल में ही ( चरतः ) अच्छी प्रकार विचरते और ( प्र वसतः ) रहते हैं। जीव तो उस प्रकृति का उत्तम गृहस्थवत् भोग करता है और दूसरा ईश्वर उसमें व्यापक होकर भी प्रवासगत विरही पथिकवत् उससे निःसंग रहता इससे दोनों प्रवासीवत् हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीच ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, २ आर्ची गायत्री। ३, ४, १० आर्ची स्वराड् गायत्री। ५ विराड् गायत्री। ६—९ आर्ची भुरिग्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्राणापान का इन्द्रियाश्वों व बुद्धि के साथ निवास

    पदार्थ

    [१] इस शरीर में (द्वा) = ये दो अश्विनी देव, प्राण और अपान (विभिः) = इन्द्रियाश्वों के द्वारा [वि-horse] (एकया सह) = उस [एके मुख्यान्यकेवलाः] एक मुख्य साधनभूत बुद्धि के साथ (प्रचरतः) = विचरते हैं। प्राणापान, इन्द्रियों व बुद्धि के साथ जीवनयात्रा में चलते हैं। [२] ये अश्विनी देव (प्रवासा इव) = प्रवासियों के समान (वसतः) = निवास करते हैं। वे इस संसार को अपना घर नहीं मान लेते। यहाँ वे अपने को यात्रा पर प्रवास में आया हुआ मानते हैं। उनका यहाँ व्यवहार यात्रियों की तरह ही होता है। एक यात्री कम से कम भार लेकर चलता है, ये भी अपरिग्रह की वृत्ति से चलते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणापान इन्द्रियों के द्वारा सब गति करते हैं। वे बुद्धिपूर्वक यहाँ प्रवास में निवास करते हैं।

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