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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 29/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीचः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - आर्चीस्वराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    वाशी॒मेको॑ बिभर्ति॒ हस्त॑ आय॒सीम॒न्तर्दे॒वेषु॒ निध्रु॑विः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाशी॑म् । एकः॑ । बि॒भ॒र्ति॒ । हस्ते॑ । आ॒य॒सीम् । अ॒न्तः । दे॒वेषु॑ । निऽध्रु॑विः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाशीमेको बिभर्ति हस्त आयसीमन्तर्देवेषु निध्रुविः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वाशीम् । एकः । बिभर्ति । हस्ते । आयसीम् । अन्तः । देवेषु । निऽध्रुविः ॥ ८.२९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 29; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Another, constant and unshakable among the divinities holds an iron axe, shaper of things. (This has been interpreted as Tvashta, divine shaper, maker and refiner of things, or the ear or Kratu, performer of holy acts.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रथम कर्णदेव सर्व ऐकून व निश्चय करून मनाद्वारे आत्म्याला म्हणतो, तेव्हा तो काटछाट करतो, त्यासाठी येथे हे वर्णन केलेले आहे. ॥३॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    कर्णदेवं दर्शयति ।

    पदार्थः

    देवेषु=देवानाम् । अन्तर्मध्ये । निध्रुविः=निश्चले स्थाने वर्तमानः । एकः=कर्णदेवः । हस्ते । आयसीम्=लोहनिर्मिताम् । वाशीम्= तक्षणसाधनं कुठारम् । “वाशृ शब्दे” वाशते शब्दयते आक्रन्दयति शत्रूननयेति वाशी । बिभर्ति=धारयति ॥३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    कर्णदेव का गुण दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (देवेषु+अन्तः) देवों के मध्य (निध्रुविः) निश्चलस्थाननिवासी (एकः) एक कर्णरूप देव (हस्ते) हाथ में (आयसीम्) लोहनिर्मित (वाशीम्) वसूल (बिभर्ति) रखता है ॥३ ॥

    भावार्थ

    प्रथम कर्णदेव सब सुनकर और निश्चयकर मनोद्वारा आत्मा से कहता है, तब वह काट-छाँट करता है, अतः यहाँ वाशी का वर्णन है ॥३ ॥

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    विषय

    उसके महान् अद्भुत कर्म ।

    भावार्थ

    वह ( एकः ) अद्वितीय ( देवेषु अन्तः ) विद्वानों, विजयेच्छुकों के बीच सेनापतिवत्, प्राणों के बीच आत्मवत्, समस्त तेजोमय एवं पृथिव्यादि तत्वों के बीच ( हस्ते ) अपने हाथ में ( आयसीम् वाशीम् ) सुवर्णमयी वंशी को गायक के समान, एवं लोह की बनी बसौली को शिल्पियों के समान, ( आयसीम् ) सबको संचालन करने में समर्थ ( वाशीम् ) ज्ञान वाणी वेद को वा सर्वसंचालिका, वशकारिणी प्रभुशक्ति को ( निध्रुविः ) स्थिर होकर, सबका धारक होकर ( बिभर्ति ) धारण करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीच ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, २ आर्ची गायत्री। ३, ४, १० आर्ची स्वराड् गायत्री। ५ विराड् गायत्री। ६—९ आर्ची भुरिग्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'आयसी वाशी' के धारक प्रभु [त्वष्टा]

    पदार्थ

    [१] (एकः) = वह अद्वितीय प्रभु (देवेषु अन्तः) = सब देवों में (निध्रुविः) = ध्रुवना से निवास करनेवाला है या नितरां गमनशील है अथवा संग्रामों में शत्रुओं के सामने अतिशयेन स्थिरतावाला है। [२] ये प्रभु (हस्ते) = हाथ में (आयसीम्) = लोहे के बने हुए (वाशीम्) = [शब्दयति आक्रन्दयति शत्रून् अनया] तक्षण साधन कुठार को (बिभर्ति) = धारण करते हैं। प्रभु इस वाशी के द्वारा शत्रुओं का तक्षण कर देते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सब देवों में प्रभु का निवास है। प्रभु से ही ये देवत्व को प्राप्त कर रहे हैंअपनी आयसी वाशी से सब शत्रुओं का विनाश कर देते हैं।

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