ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 29/ मन्त्र 5
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीचः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
ति॒ग्ममेको॑ बिभर्ति॒ हस्त॒ आयु॑धं॒ शुचि॑रु॒ग्रो जला॑षभेषजः ॥
स्वर सहित पद पाठति॒ग्मम् । एकः॑ । बि॒भ॒र्ति॒ । हस्ते॑ । आयु॑धम् । शुचिः॑ । उ॒ग्रः । जला॑षऽभेषजः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तिग्ममेको बिभर्ति हस्त आयुधं शुचिरुग्रो जलाषभेषजः ॥
स्वर रहित पद पाठतिग्मम् । एकः । बिभर्ति । हस्ते । आयुधम् । शुचिः । उग्रः । जलाषऽभेषजः ॥ ८.२९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 29; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Another holds a razor edge weapon in hand, being pure, brilliant and terrible, and controls healing powers of medicine and immunity. (This is Rudra, also inner happiness, which is the essential and primary force of good health.)
मराठी (1)
भावार्थ
मुखात अन्नाचे चर्वण करणारे दात आहेत ती महान उपकारी अस्त्रे आहेत. ॥५॥
संस्कृत (1)
विषयः
मुखदेवं दर्शयति ।
पदार्थः
शुचिः=“शुच दीप्तौ” स्वतेजसा देदीप्यमानः । यद्वा “शुच शोके” शत्रूणां शोचयिता दुःखयिता । अतएव उग्रस्तीव्रः । अपि च । जलाषभेषजः=सुखकरभैषज्यवान् । एकः=मुखदेवः । तिग्मम्=तीक्ष्णधारमायुधम् । हस्ते । बिभर्ति । आयुध्यते संप्रहरति शत्रूननेनेति आयुधमस्त्रम् ॥५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
मुखदेव का गुण दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(शुचिः) स्वतेज से दीप्यमान (उग्रः) तीव्रः (जलाषभेषजः) सुखकारी भैषज्यधारी (एकः) मुखदेव (हस्ते) हाथ में (तिग्मम्) तीक्ष्ण (आयुधम्) आयुध (बिभर्ति) रखता है ॥५ ॥
भावार्थ
मुख में जो अन्नों के पीसनेवाले दन्त हैं, वे महोपकारी अस्त्र हैं ॥५ ॥
विषय
उसके महान् अद्भुत कर्म ।
भावार्थ
वह ( एकः ) एक, अकेला, अद्वितीय, दूसरे की अपेक्षा न करने वाला, प्रभु ( शुचिः ) दीप्तिमान् शुद्ध पवित्र, ( उग्रः ) सबसे बलवान्, दुष्टों को भयदाता, ( जलाष-भेषजः ) जलवत् शान्तिदायक दुःखनाशक, सब बाधाओं को दूर करने में समर्थ, वैद्य के समान, ही ( तिग्मम् ) तीक्ष्ण ( आयुधम् ) शस्त्र को ( हस्ते बिभर्त्ति ) अपने हाथ में, उत्तम शल्यचिकित्सकवत् अपने वश में रखता है। वह उसका अत्यन्त विवेक से उपयोग करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीच ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, २ आर्ची गायत्री। ३, ४, १० आर्ची स्वराड् गायत्री। ५ विराड् गायत्री। ६—९ आर्ची भुरिग्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
तिग्म आयुधधारी प्रभु [रुद्रः]
पदार्थ
[१] (एकः) = वे अद्वितीय प्रभु हस्ते हाथ में (तिग्मं आयुधम्) = बड़े तीक्ष्ण अस्त्र को (बिभर्ति) = धारण करते हैं। इस आयुध के द्वारा ही तो ये सब शत्रुओं का विनाश करते हैं। [२] वे (शुचिः) = पवित्र हैं। (उग्रः) = तेजस्वी हैं। (जलाषभेषजः) = सुखकर औषधोंवाले हैं, अथवा जल रूप महान् औषधवाले हैं। जल के द्वारा हमारे सब रोगों को दूर करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हाथ में तिग्म आयुध को लिये हुए हैं, हमारे सब शत्रुओं का संहार करके हमें पवित्र व नीरोग बनाते हैं।
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