ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 91/ मन्त्र 3
आ च॒न त्वा॑ चिकित्सा॒मोऽधि॑ च॒न त्वा॒ नेम॑सि । शनै॑रिव शन॒कैरि॒वेन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥
स्वर सहित पद पाठआ । च॒न । त्वा॒ । चि॒कि॒त्सा॒मः॒ । अधि॑ । च॒न । त्वा॒ । न । इ॒म॒सि॒ । शनैः॑ऽइव । श॒न॒कैःऽइ॑व । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ चन त्वा चिकित्सामोऽधि चन त्वा नेमसि । शनैरिव शनकैरिवेन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥
स्वर रहित पद पाठआ । चन । त्वा । चिकित्सामः । अधि । चन । त्वा । न । इमसि । शनैःऽइव । शनकैःऽइव । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ८.९१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 91; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
विषय - वर से परिचय।
भावार्थ -
हे पुरुष ( त्वा आ चिकित्सामः ) हम तुझे जानना चाहते हैं। ( त्वा चन न अधि इमसि ) हम तुझे अभी नहीं पहचान रहे हैं। हे (इन्दो) गुरु के समीप से नवागत सोम्य ! ऐश्वर्यवन् तेजस्विन् युवक ! तू ( शनैः इव शनकैः इव ) शनैः शनैः ( इन्द्राय ) स्वामी या पति पद प्राप्त करने के लिये अधिक आगे बढ़, परिचित हो।
जिस प्रकार बालक को आचार्य मातावत् अपने गर्भ में रखता और स्वीकार करता है उसी प्रकार प्रथम माता भी ‘इन्दु या सोम’ अर्थात् द्रुत वीर्य को अपने गर्भ में धारण करती है। वह भी ‘इन्द्र’ अर्थात् अपने पति के ही निमित्त उसे धारण करती है। वह भी गर्भाशय में शनैः शनैः परिस्रवण करता कमल तक पहुंचता है। यह आशय भी मन्त्र में उपमित रूप में निहित है। इसी मन्त्र पर शाट्यायन ब्राह्मण का वचन है—“सोमपीथ इह वा अस्य भवति य एवं विद्वान् स्त्रियमुपजिघ्रतीति ”।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अपालात्रेयी ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ आर्ची स्वराट् पंक्तिः। २ पंक्ति:। ३ निचृदनुष्टुप्। ४ अनुष्टुप्। ५, ६ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचृदनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
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