ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 91/ मन्त्र 3
आ च॒न त्वा॑ चिकित्सा॒मोऽधि॑ च॒न त्वा॒ नेम॑सि । शनै॑रिव शन॒कैरि॒वेन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥
स्वर सहित पद पाठआ । च॒न । त्वा॒ । चि॒कि॒त्सा॒मः॒ । अधि॑ । च॒न । त्वा॒ । न । इ॒म॒सि॒ । शनैः॑ऽइव । श॒न॒कैःऽइ॑व । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ चन त्वा चिकित्सामोऽधि चन त्वा नेमसि । शनैरिव शनकैरिवेन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥
स्वर रहित पद पाठआ । चन । त्वा । चिकित्सामः । अधि । चन । त्वा । न । इमसि । शनैःऽइव । शनकैःऽइव । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ८.९१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 91; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O soma, we are trying to know you and your efficacy, we do not yet know you in full. Slowly, O soma, slowly, drop by drop, flow for Indra, health and vigour of life.
मराठी (1)
भावार्थ
सोमरसाच्या प्रमाणावर पूर्ण नियंत्रण ठेवले पाहिजे. ही बलप्रद औषधी थेंब थेंब करून संपूर्णपणे नियंत्रित मात्रेत दिली पाहिजे. ती हळूहळू प्रभावी होते. ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्दो) सोमरस की आनन्ददायक बूंद! (शनैः इव शनकैः इव) धीरे ही धीरे (इन्द्राय) रोगादि दुःखनिवारक शक्ति प्रदान करने हेतु (परिस्रव) स्रवित हो; हम (त्वा) तेरे (न जन अभि+ईमसि) गुणावगुणों को नहीं जानते यह नहीं, भली-भाँति जानते हैं। इसलिये (त्वा) तुझ पर (चिकित्सामः चन) नियंत्रण भी रखते हैं॥३॥
भावार्थ
सोमरस की मात्रा को पूर्णतः नियन्त्रित रखना चाहिये। यह बलप्रद ओषधि बूंद-बूंद कर सर्वथा नियंत्रित मात्रा में ही दी जाय--यह धीरे-धीरे प्रभावी होती है॥३॥
विषय
वर से परिचय।
भावार्थ
हे पुरुष ( त्वा आ चिकित्सामः ) हम तुझे जानना चाहते हैं। ( त्वा चन न अधि इमसि ) हम तुझे अभी नहीं पहचान रहे हैं। हे (इन्दो) गुरु के समीप से नवागत सोम्य ! ऐश्वर्यवन् तेजस्विन् युवक ! तू ( शनैः इव शनकैः इव ) शनैः शनैः ( इन्द्राय ) स्वामी या पति पद प्राप्त करने के लिये अधिक आगे बढ़, परिचित हो। जिस प्रकार बालक को आचार्य मातावत् अपने गर्भ में रखता और स्वीकार करता है उसी प्रकार प्रथम माता भी ‘इन्दु या सोम’ अर्थात् द्रुत वीर्य को अपने गर्भ में धारण करती है। वह भी ‘इन्द्र’ अर्थात् अपने पति के ही निमित्त उसे धारण करती है। वह भी गर्भाशय में शनैः शनैः परिस्रवण करता कमल तक पहुंचता है। यह आशय भी मन्त्र में उपमित रूप में निहित है। इसी मन्त्र पर शाट्यायन ब्राह्मण का वचन है—“सोमपीथ इह वा अस्य भवति य एवं विद्वान् स्त्रियमुपजिघ्रतीति ”।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अपालात्रेयी ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ आर्ची स्वराट् पंक्तिः। २ पंक्ति:। ३ निचृदनुष्टुप्। ४ अनुष्टुप्। ५, ६ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचृदनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
त्वा न अधीमसि चन [प्रभु को भूल ही जाते हैं]
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (त्वा) = आपको (चन) = [एव] ही (आचिकित्सामः) = जानने की कामना करते हैं। सामान्यतः इस संसार में विषयों में उलझकर (त्वा) = आपको (न अधि इमसि चन) = नहीं ही स्मरण करते हैं। विषयों का परदा पड़ते ही आप हमारे से ओझल हो जाते हैं। [२] हे (इन्दो) = सोम ! (शनैः इव) = कुछ धीमे-धीमे यह (शनकैः इव) = धीरे-धीरे ही इन्द्राय प्रभु की प्राप्ति के लिये (परिस्रव) = हमारे में परिस्तुत हो। धीमे-धीमे यह सोम अंग-प्रत्यंगों में व्याप्त होनेवाला हो । शान्तिपूर्वक अंगों में व्याप्त हुआ हुआ यह सोम हमारे जीवनों को इस प्रकार प्रकाशमय बनाता है कि हम प्रभु का दर्शन कर पाते हैं। तू
भावार्थ
भावार्थ - सामान्यतः विषयों में उलझा हुआ पुरुष प्रभु का स्मरण नहीं करता। हम प्रभु को जानने की कामना करें। इसी उद्देश्य से सोम को शरीर में सुरक्षित करने का प्रयत्न करें।
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