ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 91/ मन्त्र 7
ऋषिः - अपालात्रेयी
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
खे रथ॑स्य॒ खेऽन॑स॒: खे यु॒गस्य॑ शतक्रतो । अ॒पा॒लामि॑न्द्र॒ त्रिष्पू॒त्व्यकृ॑णो॒: सूर्य॑त्वचम् ॥
स्वर सहित पद पाठखे । रथ॑स्य । खे । अन॑सः । खे । यु॒गस्य॑ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । अ॒पा॒लाम् । इ॒न्द्र॒ । त्रिः । पू॒त्वी । अकृ॑णोः । सूर्य॑ऽत्वचम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
खे रथस्य खेऽनस: खे युगस्य शतक्रतो । अपालामिन्द्र त्रिष्पूत्व्यकृणो: सूर्यत्वचम् ॥
स्वर रहित पद पाठखे । रथस्य । खे । अनसः । खे । युगस्य । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । अपालाम् । इन्द्र । त्रिः । पूत्वी । अकृणोः । सूर्यऽत्वचम् ॥ ८.९१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 91; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 7
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, giver of health and energy, O soul, agent of a hundred good actions, whatever the weakness of this chariot, the body system, whatever the weakness in the pranic energy system, and whatever weakness there be in the coordination of the various systems of body, prana and mind in relation to the soul, all these weaknesses of the unprotected, under nourished and immature maiden, I pray, make up and give her a radiant personality.
मराठी (1)
भावार्थ
सोमलता इत्यादी औषधींच्या रसाचा व्यवस्थित उपयोग करण्याने शरीराचे सर्व प्रकारचे दोष, प्राणापान इत्यादी क्रियांच्या दोषांमुळे उत्पन्न झालेले रोग नष्ट होतात. पोषणाच्या अभावाने रिकामे झालेले व पोकळ झालेले शरीर पुन्हा कान्तिमान होते. ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्द्र) सोमरस के उपभोग के द्वारा शक्तिशाली बने मेरे आत्मन्! (शतक्रतो) सैकड़ों कर्मों के कर्ता तथा विज्ञानवान्! (अपालाम्) मुझे पालन-पोषण रहित कन्या को (रथस्य) इस रमणीय वाहन शरीर के (खे) दोष में से, (अनसः) [अन् प्राणने+असुन् अनः जो समर्थ बनाता है वह प्राण।] प्राण के (खे) दोष में से तथा (युगस्य) पर्याप्त समय से चले आये (खे) अन्य दोष में से इस प्रकार निर्दोष करके (त्रिष्पूत्व्य) तीन प्रकार से निर्दोष कर सूर्य (त्वचम्) सूर्य के तुल्य तेजस्वी त्वचा वाली (अकृणोः) कर दे॥७॥
भावार्थ
सोमलता इत्यादि ओषधियों के रस का विधिवत् उपयोग करने से शरीर के सम्पूर्ण दोष, प्राणापान आदि क्रियाओं के दोषों से उत्पन्न रोग मिट जाते हैं। पोषण के अभाव में रिक्त एवं खोखला हुआ शरीर पुनः कान्तिमान् हो जाता है॥७॥ अष्टम मण्डल में इक्यानवेवाँ सूक्त व चौदहवाँ वर्ग समाप्त॥
विषय
वर के कर्त्तव्य। सूक्त समीक्षा।
भावार्थ
हे ( शतक्रतो ) अपरित ज्ञान और कर्म सामर्थ्य वाले ! तू ( रथस्य खे ) रथ के अवकाश में, फिर ( अनसः खे ) शकट के अवकाश में और ( युगस्य खे ) युग नामक यान के मध्य में इस प्रकार क्रम से ( अपालां ) अप्राप्तपति, कुमारी कन्या को ( त्रिः पूत्वी ) तीन प्रकार से लाकर ( सूर्यत्वचम् अकृणोः ) सूर्य के समान उज्ज्वल रंग-बिरंगे वस्त्रों से आच्छादित कर।
टिप्पणी
सूक्त-समीक्षा इस सूक्त में कई समस्याएं हैं—( मन्त्र १ म० ) ‘अपाला’ वह कन्या है जिसको पालक पति नहीं मिला इस प्रकार प्रत्येक कुमारी कन्या ‘अपाला’ है। इसी प्रकार ब्रह्मचारी युवा ‘सोम’ है। इसका स्पष्टीकरण अथर्व वेद में का० १-सू० ११ में देखो। ‘स्रुता’ वह कन्या है जो रजस्वला होकर स्नान कर लेती है। अथवा गुरुगृह में स्नातिका हो। इसी प्रकार ‘सोम’ शब्द वीर्यवान् पुरुष वा विद्या और व्रत द्वारा स्नातक दोनों अर्थों को कहता है। ‘विदत्’—कन्या जब पति को प्राप्त करती है वह ‘पति का वेदन’ करती है। ‘विदत्’ पद उसी प्रकार के विवाह द्वारा पति के वेदन को बतलाता है। (अस्तं) ‘अस्त’ गृह-आश्रम का वाचक है। उसको धारण करती कन्या पुरुष का सवन करे, आदर करे। क्यों ? उसको अपना स्वामी और अपना परम शक्तिमान् रक्षक बनाने के लिये। अर्थात् ‘इन्द्र’ और ‘शक्र’ ये दोनों ‘पति’ के पद की योग्यता को बतलाते हैं। ( मं० २ ) उसी पुरुष को ‘वीरक’ कहा है। वही गृह २ को उज्ज्वल करता हुआ प्राप्त होता है। अर्थात् वही पुत्र होकर कुलदीपकवत् प्राप्त होता है। आगे कन्या पति को उसका कर्त्तव्य बतलाती है कि वह दोनों से उत्पन्न पुत्र का पालन करे। ‘जम्भ-सुतं’—जाया च पतिश्च जम्पती। जायतेऽस्यां, जनयति इति वा जाया, विभर्त्ति इति भः उभौ जम्भौ। ताभ्यामुत्पन्नो जम्भसुतः तं। ( धानवन्तं ) धानम् आधानं, गर्भाधान संस्कारवन्तं। स्वयं विधिवद् आहितम्। ‘करम्भिणं’—करम्बः, करम्भः। करोते रम्भच् प्रत्ययः। क्रियावान् कर्मकुशलः। ( अपूपवन्तं ) अप दूरे आचार्यगृहे उपवन्तं उपवीतवन्तं। मध्यमपदलोपः। ‘उक्थिनं’—उक्थो वेदो गुरूपदेशो वा तद्वन्तम्। ( मं० ३ ) पहले दोनों अपरिचित होते हैं वे दोनों परिचय प्राप्त करें। शनैः २ कन्या का पुरुष और पुरुष का कन्या परिचय प्राप्त करे फिर वे पतिपत्नी होने योग्य हैं। ‘इन्दुः’—नव स्नातक कन्या के पति प्रेमार्द्र हो तो उस दशा में वह ‘इन्दु’ है, ऐश्वर्यवान् होने से भी ‘इन्दु’ है। परिचित होकर बाद में वह उसका पति अर्थात् ‘इन्द्र’ होने के लिये आवे। ( मन्त्र ४ ) विवाहेच्छुक वर शक्तिमान् क्रियाकुशल हो, जो वधू को भी पर्याप्त वस्त्रालंकार दे सके। जिस की शक्ति, कमाई और धनसम्पदा से आकृष्ट होकर कन्या अपने पालक माता पिता का मोह छोड़ ‘इन्द्र’ अर्थात् पति से संगत हो, उसी से दिल मिलाकर रहे। (पति-द्विषः) —यहां पति शब्द लौकिक पति का वाचक नहीं, प्रत्युत सामान्य पालक ( Gardian ) का वाचक है। वह सब बन्धु बान्धवों के प्रेम या मोह को त्याग कर भी पति के साथ हो लेती है। ऐसी दशा में यदि माता पितादि बाधक होते हैं तो वह उनके प्रति प्रेम त्याग देती है और वर के साथ ही प्रेम बांधती है। वही ‘अप्रीति’ यहां ‘द्विष’ पद का वास्तविक अर्थ है। ‘द्विष् अप्रीतौ’ द्विष् का अर्थ अप्रीति है। परन्तु वैर अर्थ में द्वेष पद रूढ़ हो गया है। (मन्त्र ५ ) विष्टपा= वि-तपा। तप रहित या संतापरहित। तपरहित अपरिपक्व ‘ततस्य शिरः’ यहां ‘तत’ वा ‘तात’ शब्द प्रिय अर्थ में भी हैं। इसी से। ‘पिता’ ‘पुत्र’ दोनों के लिये भी प्रयुक्त होता रहा है। अथवा तनोति सन्ततिम् इति ततः। जो सन्तान उत्पन्न करे वह ‘तत’ है। इससे यहां प्रियपति का वाचक होकर वरने योग्य पुरुष के लिये कहा है। शिर शब्द मुख के लिये उपलक्षण है, उस का मूंछरहित मुख न होवे, विवाहेच्छुक के प्रति कन्या की तरफ से यह १म शर्त्त है कि वह सम्बन्ध करने के पूर्व अपने मुख पर बाल आने दे, वेद में ‘खलति’ आदि शब्द नहीं हैं, अतः पिता का गंजा शिर अर्थ करना असंगत है। २सरी शर्त्त है ‘उर्वरा’ कन्या जिसमें अभी गर्भ ग्रहण की शक्ति नहीं आई है, उसे उस योग्य अर्थात् ‘उर्वरा’ होने दे। ( उर्वरा = उरु-वरा विशालवराङ्गदेशा। नितम्बिनीत्यर्थः ) अर्थात् स्त्री का नितम्ब भाग अच्छा पुष्ट हो। ३सरी शर्त्त है वधू के उदर के समीप के भाग में भी यौवन चिन्हरूप रोम ( Pubes ) उत्पन्न हो जावें। अंग्रेज़ी भाषा में स्त्री की यौवन दशा को ‘Puberty’ कहा जाता है। उन रोमों से ही यौवन की दशा को बतलाने का प्रकार वेद से लिया है। अथवा—विवाह में बंधने वाली समझदार कन्या वर से तीन याचना करे, तीनों बातें ‘विष्टप’ दुःखरहित हों। ( १ ) ( ततस्य शिरः ) पित्ता का शिर संताप रहित हो, कन्या के विवाह के कारण पिता का शिर ऋणादि से ग्रस्त न हो, वह चिन्तातुर न हो, बहुत ऋणादि ग्रस्त होने या आर्थिक आघात लगने को भी ‘सिर गंजा होना’ चांद पर जूते लगना आदि भावों से कहा जाता है। वह आशय बाद के कथाकारों ने व्यङ्ग में ले लिया प्रतीत होता है। ( २ ) ‘उर्वरा’ यदि पिता की भूमि उर्वरा नहीं अर्थात् उस के गोत्र में कोई पुत्र नहीं तो अभ्रातृमती कन्या के पेट से उत्पन्न नाती ही उस के वंश का चलाने वाला हो। ( मनु का पुत्र-पुत्रिका-विधान ) ( ३ ) ‘मे उपोदरे’ मेरे उदर के पास गर्भाशय में रहे पुत्र का विशेष पालन करना पति का कर्त्तव्य हो अर्थात् जो कन्या का हाथ पकड़े उसे उसके गर्भस्थ सन्तान को पालना होगा, कन्या के माता पिता को नहीं। ऐसा बन्धन न हो तो बाद में पुरुषों में विलासिता और बढ़े। विवाहित स्त्रियां कष्ट में पड़ जावें और गर्भहत्याएं खूब हों। जहां ऐसा धार्मिक या नैतिक बन्धन नहीं वहां गर्भपात बहुत होते हैं। ( मन्त्र ६ ) ५ वें मन्त्र में कही बातों को ही पुनः कहा है, वे अत्यन्त आवश्यक होने से उन पर बल दिया गया है। (मन्त्र ७ ) ‘रथस्य खे’, ‘अनसः खे’, ‘युगस्य खे’—यहां रथ, अनस, युग ये तीन प्रकार के यानों के नाम हैं। वेगवान् यान रथ है, शकट या बैलगाड़ी अनस् है और इन के साहचर्य में युग भी अवश्य कोई रथ है। पाणिनि ने भी ‘युग्यं च पत्रे’ रथ या वाहनार्थ में युग्य पद निपातन से साधा है। कदाचित् जिस में स्त्री पुरुष की जोड़ी ही बैठ सके वह रथ ‘युग’ कहता हो। ‘ख’ का अर्थ छिद्र यहां नहीं। यहां ‘ख’ का अर्थ अवकाश भाग है। प्रथम पितृगृह से विदा होते समय कन्या रथ में चढ़े, फिर लम्बा रास्ता बैलगाड़ी में और पति-गृह के समीप आकर स्वागत पूर्वक तीसरे यान ‘युग’ में चढ़े। इस स्वागत के अवसर पर वधू को रंगा हुआ उज्ज्वल वस्त्र पहन कर ही बैठना होता था, इस प्रकार यान द्वारा वधू का आगमन इन्द्र द्वारा कुमारी कन्या का त्रिः-पवन करना है। अथवा — पुरुष स्त्री की तीन प्रकार की परीक्षा ले, तीनों में शुचि पवित्र अर्थात् निर्दोष हो तो ग्रहण करे। ‘रथस्य खे’ रमण योग्य इन्द्रिय के छिद्र, वे पवित्र हों उन में रोग न हो गुह्यांगों के रोग सिफिलि़स, सुजाक, प्रमेह, प्रदर सोमरोगादि न हो, ( २ ) ‘अनसः ख’ अन प्राणधारणे धातुः। प्राण-ग्रहण के छिद्र नाक, मुंह, फेफड़ा, उन में पीनस रोग, मुखपाक, वैरस्य और भ्रष्ट रोग की फुन्सियां और फेफड़ों में राजयक्ष्मा आदि न हो, ( ३ ) ‘युगस्य खे’ शरीर में जो युग अर्थात् जोड़ा जोड़ा इन्द्रिय हैं उन के छिद्रों में दोष, जैसे नाक दो हैं, उन में गन्धादि न होना या दुर्गन्ध होना या छोटी बड़ी टेड़ी नाक न होना, आंखे दो हैं उन की विकृति न हो, काणी या छोटी, बड़ी, न हो, मुख के जवाड़े, हाथ पैर आदि विकृत लंगड़े लूले न हों। इस प्रकार तीनों में कन्या को पवित्र, शुचि जानकर वह पुरुष उसको सूर्य के समान उज्ज्वल, चमचमाते वस्त्र देता है मानो उज्ज्वल त्वचा अर्थात् आच्छादन वाला करता है। ’अपाला’ अत्रिसुता कहाती है। उसका तात्पर्य यह है कि स्मृतियों में आत्रेयी पद रजस्वलार्थ में रूढ़ है। वस्तुतः ‘अत्रि’ ही आत्रेयी है। स्वार्थ में तद्वित है। जो प्रथम रजस्वला होकर जिस के वर प्राप्त्यर्थ तीन वर्ष व्यतीत न हुए हों वह ‘अत्रि’ है ‘नवयौवना’ रजोधर्म युक्त।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अपालात्रेयी ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ आर्ची स्वराट् पंक्तिः। २ पंक्ति:। ३ निचृदनुष्टुप्। ४ अनुष्टुप्। ५, ६ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचृदनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
सूर्यत्वच् बनना
पदार्थ
[१] (रथस्य) = शरीररूप रथ के (खे) = छिद्र में (अनस:) = [ अन प्राणने] प्राणमय कोश के, इन्द्रियों के [प्राणा: वाव इन्द्रियाणि] (खे) = छिद्र में तथा (युगस्य) = आत्मा व इन्द्रियों के मिलानेवाले मन के [मन द्वारा आत्मा का इन्द्रियों के साथ सम्पर्क होता है] (खे) = छिद्र में, हे (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञान व शक्तिवाले (इन्द्र) = परमैश्वर्य सम्पन्न प्रभो ! (अपालाम्) = सब दोषों का सुदूर वारण करनेवाली को (त्रि:) = तीन बार [ शरीर, इन्द्रियों व मन से] (पूत्वी) = पवित्र करके (सूर्यत्वचम्) = सूर्य के समान त्वचावाला (अकृणो:) - तूने कर दिया।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु अपने उपासक को शरीर, इन्द्रियों व मन में निर्दोष बनाकर दीप्त जीवनवाला बना देते हैं। यह उपासक सूर्यसम तेजस्वी प्रतीत होने लगता है। प्रभु द्वारा पवित्र किया गया यह उपासक ज्ञान को [श्रुत] अपना सुरक्षा स्थान [कक्ष] बनाता है, सो ' श्रुतकक्ष' नामवाला होता है। इस उत्तम [सु] रक्षा स्थानवाला [कक्ष] यह 'सुकक्ष' बनता है। यह सब अंगों में रसवाला 'आंगिरस' तो है ही। यह सब साथियों से इन्द्र के गायन के लिये कहता है-
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