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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 91/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अपालात्रेयी देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    कु॒विच्छक॑त्कु॒वित्कर॑त्कु॒विन्नो॒ वस्य॑स॒स्कर॑त् । कु॒वित्प॑ति॒द्विषो॑ य॒तीरिन्द्रे॑ण सं॒गमा॑महै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कु॒वित् । शक॑त् । कु॒वित् । कर॑त् । कु॒वित् । नः॒ । वस्य॑सः । कर॑त् । कु॒वित् । प॒ति॒ऽद्विषः॑ । य॒तीः । इन्द्रे॑ण । स॒म्ऽगमा॑महै ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुविच्छकत्कुवित्करत्कुविन्नो वस्यसस्करत् । कुवित्पतिद्विषो यतीरिन्द्रेण संगमामहै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कुवित् । शकत् । कुवित् । करत् । कुवित् । नः । वस्यसः । करत् । कुवित् । पतिऽद्विषः । यतीः । इन्द्रेण । सम्ऽगमामहै ॥ ८.९१.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 91; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May soma give us strength and vigour. May it work for our all round improvement in personality. May it make us happier and wealthier. And may be then we, not yet in favour of matrimony and husbands, grow up, reconcile and regain their love.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सोमलता इत्यादी औषधींच्या रसाचे सेवन करून दुर्बल व रोगिणी कन्याही, ज्या पतिवरण करण्यास असमर्थ होत्या त्या शक्तिसंपन्न होऊन वीर्यवान पतींची इच्छा करू लागतात. ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    यह सोम (कुवित् शकत्) अत्यधिक समर्थ बनाए; (कुवित् करत्) हमें खूब परिष्कृत करे, (नः) और हमें (कुवित्) बहुत (वस्यसः) बसाने वाली शक्तियों से (करत्) सम्पन्न करे। (कुवित्) जिससे कि (पतिद्विषः) [दुर्बलता इत्यादि के कारण] पतियुक्त होने की भावना से ही मानो द्वेष करनेवाली हम (यतीः) क्रियाशील हो (इन्द्रेण) शक्तिशाली वीर्यवान् [वरण किये पति] के साथ (संगमामहै) संगम कर पाएं। ४॥

    भावार्थ

    सोमलता इत्यादि ओषधियों के रस का सेवन कर दुर्बल तथा रोगिणी कन्यायें भी, जो किसी को पतिवरण करने के विचारमात्र से भयभीत थीं, शक्तिसम्पन्न हो वीर्यवान् पति को चाहने लग जाती हैं॥४॥

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    विषय

    वर के गुण।

    भावार्थ

    वह पुरुष जो विवाह करना चाहता है ( कुवित् शकत् ) स्वयं भी बहुत समर्थ हो, हमें भी बहुत समर्थ करे वह स्वयं भी ( कुवित् करत् ) बहुत से कार्य करने में समर्थ हो। और वह ( नः ) हमें ( कुवित् ) बहुत प्रकार से ( वस्यसः करत् ) उत्तम धनादि ऐश्वर्य से सम्पन्न करे। ( कुवित् ) बहुतसी ( पतिद्विषः ) बन्धु आदि पालक जनों से प्रीति न करती हुई हम स्त्रियां ( यतीः ) घरों से पृथक् होकर ( इन्द्रेण ) ऐश्वर्यवान्, अन्न देने में समर्थ पुरुष से ही ( संगमामहै ) संगत, सम्बद्ध हो जाती हैं इसलिये स्त्रियों के साथ विवाह करने वाले को चाहिये कि वह अपनी पत्नी को अधिक समर्थ करे, स्वयं भी श्रमशील हो, स्त्रियों को उत्तम वस्त्र आभूषणादि से भी सन्तुष्ट करे जिससे वह अपने पालक जन की निर्धनता से खिन्न होकर द्रव्यवानों के प्रलोभन में न जावें।

    टिप्पणी

    पितृभिर्भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा। पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः। यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः। तस्मादेता सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः। भूतिकामैर्नरैनित्यं सत्कारेपूत्सवेषु च। मनु० अ० ३। श्लो०५५, ५६, ५९॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अपालात्रेयी ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ आर्ची स्वराट् पंक्तिः। २ पंक्ति:। ३ निचृदनुष्टुप्। ४ अनुष्टुप्। ५, ६ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचृदनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    विषयोन्मुख इन्द्रियों को विषयपराङ्‌मुख करना

    पदार्थ

    [१] वे प्रभु सोमरक्षण द्वारा (कुवित्) = खूब ही (शकत्) = हमें शक्तिशाली बनाते हैं। (कुवित्) = खूब ही (करत्) = [कृ विक्षेपे] शत्रुओं को विक्षिप्त करते हैं और इस प्रकार (नः) = हमें (कुवित्) = खूब ही (वस्यसः) = प्रशस्त वसुओंवाला करते हैं। [२] हम भी इन (पतिद्विषः) = उस पति प्रभु से प्रीति न करनेवाली [द्विष् अप्रीतौ] (कुवित् यती:) = खूब ही इधर-उधर विषयों में भटकती हुई इन्द्रियों को इन्द्रेण उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के साथ संगमामहै संगत करते हैं। इन्द्रियों को विषयव्यावृत्त कर प्रभु की ओर प्रेरित करना ही मानवजीवन की उत्कृष्ट साधना है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण द्वारा शक्ति बढ़ती है, वासनाविनाश होता है और प्रशस्त वसुओं की प्राप्ति होती है। हम विषयोन्मुख इन्द्रियों को प्रभुप्रवण करने का यत्न करें।

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