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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 91/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अपालात्रेयी देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    इ॒मानि॒ त्रीणि॑ वि॒ष्टपा॒ तानी॑न्द्र॒ वि रो॑हय । शिर॑स्त॒तस्यो॒र्वरा॒मादि॒दं म॒ उपो॒दरे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मानि॑ । त्रीणि॑ । वि॒ष्टपा॑ । तानि॑ । इ॒न्द्र॒ । वि । रो॒ह॒य॒ । शिरः॑ । त॒तस्य॑ । उ॒र्वरा॑म् । आत् । इ॒दम् । मे॒ । उप॑ । उ॒दरे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमानि त्रीणि विष्टपा तानीन्द्र वि रोहय । शिरस्ततस्योर्वरामादिदं म उपोदरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमानि । त्रीणि । विष्टपा । तानि । इन्द्र । वि । रोहय । शिरः । ततस्य । उर्वराम् । आत् । इदम् । मे । उप । उदरे ॥ ८.९१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 91; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    These are three vital systemic organs of the growing and continuous body existence which, O soma energy, raise and refine: One is the head, seat of the intelligential system, the other is heart and lungs, seat of pranic system, and yet another is the stomach and pelvic region, seat of nutritional and sexual system. Indra, lord of energy and power, let these three grow to maturity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शरीर तीन क्षेत्रात किंवा गुहेमध्ये विभाजित केलेले आहे. शिरोगुहा, उरोगुहा, उदरगुहा. पुत्रपौत्रांच्या रूपात पसरलेले- पुढे चालणारे हे शरीर आहे. त्याचा येथे ‘तत’ ने संकेत आहे. याच्या दोन गुहा, ‘शिर’ व ‘उदर’ यांचा येथे स्पष्ट संकेत आहे, ‘उर्वरा’ व ‘उरस’ शब्दाचे मूळ (उरगमने सौत्रो धातु: आहे अथवा ‘ऋ’ धातु आहे.) उरो गुहेत हृदय, फुफ्फुसे व रक्तवाहिन्या आहेत. प्राण इत्यादीमुळे ते निरंतर गतिशील आहेत. या प्रकारे या तीन क्षेत्रांची - तीन गुहांची शुद्धी होऊन शरीर शुद्ध व सशक्त बनते. ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) शक्ति तथा ऐश्वर्य इच्छुक मेरे जीवात्मन्! (इमानि त्रीणि) ये तीन (विष्टपा=विष्टपाणि) अपने में व्याप्त होने वाले को बचा रखने वाले पात्र हैं ["शरीर की तीन गुहाएं हैं--शिरो गुहा, उरो गुहा एवं उदर गुहा] (तानि) इन तीनों को (विरोहय) स्वस्थ कर, बुद्धिशील कर, उन्नतिशील कर। इसमें से (ततस्य) इस सन्तति के रूप में निरन्तर चलने वाले [तन्+क्त] शरीर का (शिरः) शिरोभाग है--[दूसरी गुहा] (उर्वराम्) [प्राण से फैलने वाली] उरो गुहा है; [तथा तीसरी गुहा] (इदं मे उपोदरम्) मेरे शरीर के मध्य भाग में स्थित उदर गुहा है॥५॥

    भावार्थ

    शरीर तीन क्षेत्रों या गुहाओं में विभाजित है--शिरोगुहा, उरोगुहा तथा उदरगुहा। पुत्रपौत्रादि रूप में फैलने वाला--आगे चलने वाला शरीर है--उसका ही यहाँ 'तत' से संकेत है। इसकी दो गुहाएं शिर तथा 'उदर' तो यह स्पष्ट ही संकेतित है--'उर्वरा तथा 'उरस्' शब्द का मूल [उर् गमने सौत्र धातु है अथवा 'ऋ' धातु है] उरो गुहा में हृदय, फेफड़े एवं धमनियाँ हैं, जो प्राण आदि के द्वारा निरन्तर गतिशील है। इस प्रकार, इन तीनों क्षेत्रों की शुद्धि से ही शरीर शुद्ध तथा सशक्त होता है॥५॥

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    विषय

    कन्या की ओर से ३ शर्तें।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् पुरुष ! स्वामिन् ( इमानि ) ये ( त्रीणि ) तीनों पदार्थ (वि-तपा) संताप से रहित या अपक्व हों, (तानि) उन तीनों को तू ( वि रोहय ) विशेष रूप से उन्नत एवं वृद्धियुक्त, सफल होने दे, (१) ( ततस्य शिरः ) पिता के शिर को ऊंचा कर। अर्थात् विवाह करने वाले को प्रथम अपने वा कन्या के माता पिता के शिर पर के भार को कम करना, उस की चिन्ता को दूर करने का यत्न करना चाहिये जिस से वह कन्या को ले वा देकर भी पश्चात्ताप न करे। (२) ( उर्वराम् वि रोहय) जिस प्रकार ‘इन्द्र’, सूर्य या मेघ उर्वरा भूमि पर बरस कर उसे अन्नादि से सम्पन्न करता है इसी प्रकार विवाहित युवक को चाहिये कि उर्वरा कन्या के साथ विवाह करके सन्तान उत्पन्न करे। (३) ( आत् इदं मे उप-उदरे ) और यह जो मुझ कन्या के उदर या पेट के समीप अंग या पेट में स्थित बीज गर्भ रूप से विद्यमान हो। हे ( इन्द्र ) वपन योग्य भूमि रूप स्त्री के गर्भ में इरा अर्थात् अन्नवत् बीज आधान करने हारे पुरुष ! तू उस को भी ( वि रोहय ) विशेष रूप से पुष्ट कर, सन्तान को पोषित कर, उस को अधबीच में नष्ट न होने दे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अपालात्रेयी ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ आर्ची स्वराट् पंक्तिः। २ पंक्ति:। ३ निचृदनुष्टुप्। ४ अनुष्टुप्। ५, ६ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचृदनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    त्रिलोकी का उत्कर्ष

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (इमानि) = ये (त्रीणि) = तीन (विष्टपा) = लोक हैं। यह शरीर ही पृथिवीलोक है, हृदय अन्तरिक्षलोक है तथा मस्तिष्क ही द्युलोक है। हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (तानि विरोहय) = उन तीनों लोकों को विशिष्टरूप से उन्नत करिये। [२] (शिर:) = मेरा मस्तिष्क (ततस्य) = अत्यन्त विस्तृत ज्ञान का भण्डार हो । मेरी हृदयभूमि को आप (उर्वराम्) = खूब उर्वरा करिये - यह हृदयक्षेत्र नीरस न हो। यह क्षेत्र स्नेह की भावनाओं की उत्पत्ति के लिये उर्वर हो। (आत्) = अब (इदम्) = यह वीर्य (मे) = मेरे (उदरे) = उदर में (उप) = समीपता से रहे। शक्ति का मेरे अन्दर रक्षण करिये। मस्तिष्क ज्ञान का, हृदय स्नेह का शरीर वीर्य [शक्ति] का उत्पत्तिस्थल बने।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु मेरी त्रिलोकी को उत्कृष्ट बनाएँ। मस्तिष्करूप द्युलोक विस्तृत ज्ञान के प्रकाश का आधार बने। हृदय प्रेम की भावनाओं का उर्वर क्षेत्र हो । शरीर शक्ति का आधार हो ।

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