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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 91/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अपालात्रेयी देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒सौ च॒ या न॑ उ॒र्वरादि॒मां त॒न्वं१॒॑ मम॑ । अथो॑ त॒तस्य॒ यच्छिर॒: सर्वा॒ ता रो॑म॒शा कृ॑धि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒सौ । च॒ । या । नः॒ । उ॒र्वरा॑ । आत् । इ॒माम् । त॒न्व॑म् । मम॑ । अथो॒ इति॑ । त॒तस्य॑ । यत् । शिरः॑ । सर्वा॑ । ता । रो॒म॒शा । कृ॒धि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असौ च या न उर्वरादिमां तन्वं१ मम । अथो ततस्य यच्छिर: सर्वा ता रोमशा कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असौ । च । या । नः । उर्वरा । आत् । इमाम् । तन्वम् । मम । अथो इति । ततस्य । यत् । शिरः । सर्वा । ता । रोमशा । कृधि ॥ ८.९१.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 91; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And that which is the heart region and this body system of mine and the head region of the body which is to continue in the family line, let all these grow to maturity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शिरोगुहेमध्ये स्थित मस्तक व ज्ञानेन्द्रिये, उरोगृहात हृदय, फुफ्फुसे व उदरगृहात स्थित आतडी, मूत्रपिंडे इत्यादी अंग वृद्धिशील व सशक्त असतील तर माणूस स्वस्थ राहतो. ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    इसी को पुनः स्पष्ट किया गया है। (च) और (असौ या नः उर्वरा) वह जो हमारी उरो गुहा है उसे (आत्) तथा (इमाम्) इस (मम) मेरी जो (तन्वम्) पतली-दुबली सूक्ष्म-सी उदरगुहा है--उसे (अथ उ) तथा च (ततस्य) शरीर का (यत्) जो (शिरः) शिरोभाग, मस्तिष्क गुहा है (सर्वा ता) उन सभी को (रोमशा) वर्धनशील कर॥६॥

    भावार्थ

    शिरोगुहा स्थित मस्तिष्क तथा ज्ञानेन्द्रियाँ, उरोगुहा के हृदय, फेफड़े तथा उदर गुहा में स्थित आँतें, गुर्दे आदि अंग वृद्धिशील तथा सशक्त हों तो मानव स्वस्थ रहता है॥६॥

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    विषय

    कन्या की ओर से ३ शर्तें।

    भावार्थ

    ( असौ च ) और वह ( या ) जो ( नः ) हम में से ( उर्वरा ) उत्तम अन्न-उत्पादक भूमिवत् सन्तान उत्पादक नारी हो उस को ( रोमशा कृधि ) पूर्ण यौवनचिह्नों से युक्त होने दे। ( मम ) और मेरे ( इमां तन्वं ) इस शरीर को ( रोमशा ) रोमाञ्चित, पुलकित, पूर्ण वा पुष्टांग युक्त ( कृधि ) कर। ( भयो ) और ( ततस्य ) पिता का ( यत् शिरः ) जो शिर इस समय चिन्ताग्रस्त, उदास है उसका ( रोमशं कृधि ) रोमाञ्चित, पुलकित, चिन्तारहित कर। अथवा ( ततस्य शिरः ) सन्तानोत्पादक वर के शिर अर्थात् मुख को भी ( रोमशं कृधि ) मूंछ दाढ़ी वाला वा पूर्णायु होने दे। विवाहेच्छुक पुरुष भी युवा हो। स्त्री भी युवती और उर्वरा हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अपालात्रेयी ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ आर्ची स्वराट् पंक्तिः। २ पंक्ति:। ३ निचृदनुष्टुप्। ४ अनुष्टुप्। ५, ६ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचृदनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    रोमशा

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (असौ च या) = और जो वह (नः उर्वरा) = हमारी उर्वरा हृदयस्थली है, गत मन्त्र के अनुसार जो प्रेम के भावों के लिये अतिशयेन उपजाऊ है, उसको (आत्) = अब (इमाम्) = इस (मम तन्वम्) = मेरे शरीर को (अथ उ) = और अब (यत्) = जो (ततस्य) = विस्तृत ज्ञान का निधान (शिर:) = सिर है । (सर्वाता) = उन सब को (रोमशा कृधि) = [रु शब्दे] प्रभु-स्तवन में निवासवाला बनाइये। [२] हमारा मस्तिष्क, हमारा हृदय, हमारा शरीर सभी प्रभु-स्तवन में प्रवृत्त हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम हृदय, शरीर व मस्तिष्क सभी से प्रभु का स्तवन करनेवाले बनें। हृदय प्रभु के प्रेम से, शरीर प्रभु की शक्ति से व मस्तिष्क प्रभु के ज्ञान से परिपूर्ण हो ।

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