ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 91/ मन्त्र 4
कु॒विच्छक॑त्कु॒वित्कर॑त्कु॒विन्नो॒ वस्य॑स॒स्कर॑त् । कु॒वित्प॑ति॒द्विषो॑ य॒तीरिन्द्रे॑ण सं॒गमा॑महै ॥
स्वर सहित पद पाठकु॒वित् । शक॑त् । कु॒वित् । कर॑त् । कु॒वित् । नः॒ । वस्य॑सः । कर॑त् । कु॒वित् । प॒ति॒ऽद्विषः॑ । य॒तीः । इन्द्रे॑ण । स॒म्ऽगमा॑महै ॥
स्वर रहित मन्त्र
कुविच्छकत्कुवित्करत्कुविन्नो वस्यसस्करत् । कुवित्पतिद्विषो यतीरिन्द्रेण संगमामहै ॥
स्वर रहित पद पाठकुवित् । शकत् । कुवित् । करत् । कुवित् । नः । वस्यसः । करत् । कुवित् । पतिऽद्विषः । यतीः । इन्द्रेण । सम्ऽगमामहै ॥ ८.९१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 91; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
विषय - वर के गुण।
भावार्थ -
वह पुरुष जो विवाह करना चाहता है ( कुवित् शकत् ) स्वयं भी बहुत समर्थ हो, हमें भी बहुत समर्थ करे वह स्वयं भी ( कुवित् करत् ) बहुत से कार्य करने में समर्थ हो। और वह ( नः ) हमें ( कुवित् ) बहुत प्रकार से ( वस्यसः करत् ) उत्तम धनादि ऐश्वर्य से सम्पन्न करे। ( कुवित् ) बहुतसी ( पतिद्विषः ) बन्धु आदि पालक जनों से प्रीति न करती हुई हम स्त्रियां ( यतीः ) घरों से पृथक् होकर ( इन्द्रेण ) ऐश्वर्यवान्, अन्न देने में समर्थ पुरुष से ही ( संगमामहै ) संगत, सम्बद्ध हो जाती हैं इसलिये स्त्रियों के साथ विवाह करने वाले को चाहिये कि वह अपनी पत्नी को अधिक समर्थ करे, स्वयं भी श्रमशील हो, स्त्रियों को उत्तम वस्त्र आभूषणादि से भी सन्तुष्ट करे जिससे वह अपने पालक जन की निर्धनता से खिन्न होकर द्रव्यवानों के प्रलोभन में न जावें।
टिप्पणी -
पितृभिर्भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा। पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः। यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः। तस्मादेता सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः। भूतिकामैर्नरैनित्यं सत्कारेपूत्सवेषु च। मनु० अ० ३। श्लो०५५, ५६, ५९॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
अपालात्रेयी ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ आर्ची स्वराट् पंक्तिः। २ पंक्ति:। ३ निचृदनुष्टुप्। ४ अनुष्टुप्। ५, ६ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचृदनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
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