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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 91/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अपालात्रेयी देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    इ॒मानि॒ त्रीणि॑ वि॒ष्टपा॒ तानी॑न्द्र॒ वि रो॑हय । शिर॑स्त॒तस्यो॒र्वरा॒मादि॒दं म॒ उपो॒दरे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मानि॑ । त्रीणि॑ । वि॒ष्टपा॑ । तानि॑ । इ॒न्द्र॒ । वि । रो॒ह॒य॒ । शिरः॑ । त॒तस्य॑ । उ॒र्वरा॑म् । आत् । इ॒दम् । मे॒ । उप॑ । उ॒दरे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमानि त्रीणि विष्टपा तानीन्द्र वि रोहय । शिरस्ततस्योर्वरामादिदं म उपोदरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमानि । त्रीणि । विष्टपा । तानि । इन्द्र । वि । रोहय । शिरः । ततस्य । उर्वराम् । आत् । इदम् । मे । उप । उदरे ॥ ८.९१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 91; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् पुरुष ! स्वामिन् ( इमानि ) ये ( त्रीणि ) तीनों पदार्थ (वि-तपा) संताप से रहित या अपक्व हों, (तानि) उन तीनों को तू ( वि रोहय ) विशेष रूप से उन्नत एवं वृद्धियुक्त, सफल होने दे, (१) ( ततस्य शिरः ) पिता के शिर को ऊंचा कर। अर्थात् विवाह करने वाले को प्रथम अपने वा कन्या के माता पिता के शिर पर के भार को कम करना, उस की चिन्ता को दूर करने का यत्न करना चाहिये जिस से वह कन्या को ले वा देकर भी पश्चात्ताप न करे। (२) ( उर्वराम् वि रोहय) जिस प्रकार ‘इन्द्र’, सूर्य या मेघ उर्वरा भूमि पर बरस कर उसे अन्नादि से सम्पन्न करता है इसी प्रकार विवाहित युवक को चाहिये कि उर्वरा कन्या के साथ विवाह करके सन्तान उत्पन्न करे। (३) ( आत् इदं मे उप-उदरे ) और यह जो मुझ कन्या के उदर या पेट के समीप अंग या पेट में स्थित बीज गर्भ रूप से विद्यमान हो। हे ( इन्द्र ) वपन योग्य भूमि रूप स्त्री के गर्भ में इरा अर्थात् अन्नवत् बीज आधान करने हारे पुरुष ! तू उस को भी ( वि रोहय ) विशेष रूप से पुष्ट कर, सन्तान को पोषित कर, उस को अधबीच में नष्ट न होने दे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अपालात्रेयी ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ आर्ची स्वराट् पंक्तिः। २ पंक्ति:। ३ निचृदनुष्टुप्। ४ अनुष्टुप्। ५, ६ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचृदनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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