ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - आप्रियः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
तनू॒नपा॒त्पव॑मान॒: शृङ्गे॒ शिशा॑नो अर्षति । अ॒न्तरि॑क्षेण॒ रार॑जत् ॥
स्वर सहित पद पाठतनू॒नपा॑त् । पव॑मानः । शृङ्गे॒ इति॑ । शिशा॑नः । अ॒र्ष॒ति॒ । अ॒न्तरि॑क्षेण । रार॑जत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तनूनपात्पवमान: शृङ्गे शिशानो अर्षति । अन्तरिक्षेण रारजत् ॥
स्वर रहित पद पाठतनू३नपात् । पवमानः । शृङ्गे इति । शिशानः । अर्षति । अन्तरिक्षेण । रारजत् ॥ ९.५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
विषय - विद्वान् राजा और परमेश्वर वा प्रभुपरक योजना। बलीवर्द और अग्नि के दृष्टान्त से राजा के अनेक कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ -
(तनून-पात्) अपने देह वा बल को न गिरने देने वाला बलिष्ठ बलीवर्द जिस प्रकार (शृङ्गे शिशानः) दोनों सींग पैने करता हुआ टक्कर लेने के लिये (अर्षति) आगे बढ़ता है और जिस प्रकार (पवमानः) वेग से बहता वायु (तनूनपात्) प्राण से देह को न गिरने देता हुआ भी (अन्तरिक्षेण रारजत्) अन्तरिक्ष में विराजता है और (पवमानः तनूनपात्) जैसे, पावक अग्नि, (शृङ्गे शिशानः) दो ज्वालाएं तीक्ष्ण करता हुआ अन्तरिक्ष में चमकता है उसी प्रकार (तनूनपात्) विस्तृत व्यापक राष्ट्र का अधःपतन न होने देने वाला, (पवमानः) अभिषिक्त एवं कण्टकशोधक राजा वा सेनापति (शृङ्गे) हिंसाकारिणी, अगल बगल की दो सेनाओं को सींगों के समान (शिशानः) तीक्ष्ण करता हुआ (अर्षति) आगे बढ़े और वह (अन्तरिक्षेण) स्व और पर दोनों पक्षों वा दोनों सैन्यों के बीच में विराजे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - असितः काश्यपो देवता वा ऋषिः। आप्रियो देवता ॥ छन्द:-- १, २, ४-६ गायत्री। ३, ७ निचृद गायत्री। ८ निचृदनुष्टुप्। ९, १० अनुष्टुप्। ११ विराडनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
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