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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - आप्रियः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    तनू॒नपा॒त्पव॑मान॒: शृङ्गे॒ शिशा॑नो अर्षति । अ॒न्तरि॑क्षेण॒ रार॑जत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तनू॒नपा॑त् । पव॑मानः । शृङ्गे॒ इति॑ । शिशा॑नः । अ॒र्ष॒ति॒ । अ॒न्तरि॑क्षेण । रार॑जत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तनूनपात्पवमान: शृङ्गे शिशानो अर्षति । अन्तरिक्षेण रारजत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तनू३नपात् । पवमानः । शृङ्गे इति । शिशानः । अर्षति । अन्तरिक्षेण । रारजत् ॥ ९.५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (तनूनपात्) सर्वशरीराणामधिकरणरूपेण धारकः (पवमानः) सर्वेषां पावयिताऽस्ति (शृङ्गे शिशानः) यो हि कूटस्थनित्योऽस्ति तथा (अर्षति) सर्वं व्याप्य तिष्ठति (अन्तरिक्षेण रारजत्) यश्च द्यावापृथिव्योरधिकरणरूपेण विराजते, स नः पुनातु ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (तनूनपात्) तनूं न पातयतीति अर्थात् जो सब शरीरों को अधिकरणरूप से धारण करे, उसका नाम यहाँ तनूनपात् है, वह परमात्मा (पवमानः) सबको पवित्र करनेवाला है (शृङ्गे शिशानः) जो कूटस्थनित्य है और (अर्षति) सर्वत्र व्याप्त है और (अन्तरिक्षेण रारजत्) जो द्युलोक और पृथिवीलोक के अधिकरणरूप से विराजमान हो रहा है, वह परमात्मा हमको पवित्र करे ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा को क्षेत्रज्ञरूप से वर्णन किया गया है अर्थात् प्रकृति तथा प्रकृति के कार्य पदार्थों में परमात्मा कूटस्थरूपता से विराजमान है, इस भाव को उपनिषदों में यों वर्णन किया है कि “यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्यामन्तरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरम्” बृ. ३।७।१ जो परमात्मा पृथिवी में रहता है और पृथिवी जिसको नहीं जानती तथा पृथिवी उसका शरीर है और वह शरीरीरूप से वर्तमान है। शरीर के अर्थ यहाँ शीर्यते इति शरीरम् जो शीर्णता अर्थात् नाश को प्राप्त हो, उसको शरीर कहते हैं। परमात्मा जीव के समान शरीर-शरीरी भाव को धारण नहीं करता, किन्तु साक्षीरूप से सर्व शरीरों में विद्यमान है, भोक्तारूप से नहीं, इसी अभिप्राय से “सम्भोगप्राप्तिरिति चेन्न वैशेष्यात्” १।२।८ ब्रह्मसूत्र में यह वर्णन किया है कि परमात्मा भोक्ता नहीं, क्योंकि वह सब शरीरों में विशेषरूप से व्यापक है और गीता में ‘क्षेत्रज्ञमपि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत’ इस श्लोक में इस भाव को भली-भाँति वर्णन किया है कि सब क्षेत्ररूपी शरीरों में क्षेत्रज्ञ परमात्मा है। मालूम होता है कि गीता उपनिषद् तथा ब्रह्मसूत्रों में यह भाव इत्यादि पूर्वोक्त मन्त्रों से आया है ॥२॥

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    विषय

    'तनूनपात्' सोम

    पदार्थ

    [१] यह सोम गत मन्त्र के अनुसार 'विश्वतस्पति' होता हुआ (तनूनपात्) = शरीर को गिरने नहीं देता । शरीर की शक्तियों के रक्षण का यह साधन बनता है। (पवमानः) = हृदय को पवित्र करता है। (शृंगे) = [दीप्ते उन्नतप्रदेशे सा० ] शरीर के सर्वोन्नत प्रदेश मूर्धा [मस्तिष्क] में (शिशानः) = [शो तनूकरणे] ज्ञान को दीप्त करता हुआ [बुद्धि को सूक्ष्म बनाता हुआ] (अर्षति) = यह गति करता है । [२] (अन्तरिक्षेण) = हृदयदेश से (राजत्) = [ To be delighted] खूब आनन्द का यह अनुभव करता है। सुरक्षित हुआ हुआ सोम हमारे उल्लास का कारण बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम शरीर के लिये 'तनूनपात्' है। यह मन के लिये 'पवमान व राजत्' है। मस्तिष्क के लिये 'शिशान' है ।

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    विषय

    विद्वान् राजा और परमेश्वर वा प्रभुपरक योजना। बलीवर्द और अग्नि के दृष्टान्त से राजा के अनेक कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (तनून-पात्) अपने देह वा बल को न गिरने देने वाला बलिष्ठ बलीवर्द जिस प्रकार (शृङ्गे शिशानः) दोनों सींग पैने करता हुआ टक्कर लेने के लिये (अर्षति) आगे बढ़ता है और जिस प्रकार (पवमानः) वेग से बहता वायु (तनूनपात्) प्राण से देह को न गिरने देता हुआ भी (अन्तरिक्षेण रारजत्) अन्तरिक्ष में विराजता है और (पवमानः तनूनपात्) जैसे, पावक अग्नि, (शृङ्गे शिशानः) दो ज्वालाएं तीक्ष्ण करता हुआ अन्तरिक्ष में चमकता है उसी प्रकार (तनूनपात्) विस्तृत व्यापक राष्ट्र का अधःपतन न होने देने वाला, (पवमानः) अभिषिक्त एवं कण्टकशोधक राजा वा सेनापति (शृङ्गे) हिंसाकारिणी, अगल बगल की दो सेनाओं को सींगों के समान (शिशानः) तीक्ष्ण करता हुआ (अर्षति) आगे बढ़े और वह (अन्तरिक्षेण) स्व और पर दोनों पक्षों वा दोनों सैन्यों के बीच में विराजे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यपो देवता वा ऋषिः। आप्रियो देवता ॥ छन्द:-- १, २, ४-६ गायत्री। ३, ७ निचृद गायत्री। ८ निचृदनुष्टुप्। ९, १० अनुष्टुप्। ११ विराडनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Pavamana, lord pure and purifying, self- manifested, unfallen, infallible and imperishable, blazing on top of all, exists and operates, illuminating and glorifying the heaven and beautifying the earth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमेश्वराचे क्षेत्रज्ञरूपाने वर्णन केलेले आहे. अर्थात प्रकृती व प्रकृतीच्या कार्यपदार्थांमध्ये परमात्मा कूटस्थ (अविनाशी) रूपाने विराजमान आहे. हा भाव उपनिषदांमध्ये असा वर्णिलेला आहे की ‘‘य: पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्यामन्तरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरम्’’ बृ. ३।७।१ जो परमात्मा पृथ्वीत राहतो व पृथ्वी ज्याला जाणत नाही तसेच पृथ्वी त्याचे शरीर व तो शरीरीरूपाने वर्तमान आहे. शरीराचा अर्थ येथे शीर्यते इति शरीरम्. जे शीर्णता अर्थात् नाशवान आहे, त्याला शरीर म्हणतात. परमात्मा जीवाप्रमाणे शरीर शरीरी भाव धारण करत नाही तर साक्षीरूपाने सर्व शरीरांमध्ये विद्यमान आहे. भोक्तारूपाने नाही. याच अभिप्रायाने ‘‘सम्भोगप्राप्तिरिति चेन्न वैशेष्यात’’ ब्रह्मसूत्रात हे वर्णन केलेले आहे की परमात्मा भोक्ता नाही. कारण तो सर्व शरीरात विशेषरूपाने व्यापक आहे व गीतेमध्ये ‘‘क्षेत्रज्ञपि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत’’ या श्लोकात हा भाव चांगल्या प्रकारे वर्णित केलेला आहे की, सर्व क्षेत्ररूपी शरीरांमध्ये क्षेत्रज्ञ परमात्मा आहे. गीता, उपनिषद व ब्रह्मसूत्रात हा भाव पूर्वोक्त मंत्रातून आलेला आहे. ॥२॥

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