ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - आप्रियः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
उ॒भा दे॒वा नृ॒चक्ष॑सा॒ होता॑रा॒ दैव्या॑ हुवे । पव॑मान॒ इन्द्रो॒ वृषा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒भा । दे॒वा । नृ॒ऽचक्ष॑सा । होता॑रा । दैव्या॑ । हु॒वे॒ । पव॑मानः । इन्द्रः॑ । वृषा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उभा देवा नृचक्षसा होतारा दैव्या हुवे । पवमान इन्द्रो वृषा ॥
स्वर रहित पद पाठउभा । देवा । नृऽचक्षसा । होतारा । दैव्या । हुवे । पवमानः । इन्द्रः । वृषा ॥ ९.५.७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्रः) अन्नाद्यैश्वर्यस्य दाता परमेश्वरः (वृषा) सर्वकामप्रदः (पवमानः) यः सर्वस्य पवित्रकारकः तम् (उभा) उभौ (देवा) दिव्यशक्तिशालिनौ ज्ञानयोगकर्मयोगौ (नृचक्षसा) ईश्वरप्रत्यक्षकारकौ (होतारा) अद्भुतसामर्थ्यप्रदौ (दैव्या) यौ च दिव्यशक्तिसम्पन्नौ स्तः ताभ्यामहम् (हुवे) ईश्वरं साक्षात्करोमि ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्रः) ‘इरामनाद्यैश्वर्य्यं ददातीतीन्द्रः परमात्मा’ जो इरा अन्नादि ऐश्वर्यों को दे, उसका नाम इन्द्र है और (वृषा) वह इन्द्ररूप परमात्मा ‘वर्षतीति वृषा’ जो सब कामनाओं को देनेवाला है (पवमानः) सबको पवित्र करनेवाला है, उस परमात्मा को (उभा) दोनों (देवा) दिव्य शक्तियोंवाले जो कर्मयोग और ज्ञानयोग हैं, (नृचक्षसा) और ईश्वर के साक्षात् करानेवाले (होतारा) अपूर्व सामर्थ्य देनेवाले ज्ञान तथा कर्म द्वारा (दैव्या) जो दिव्य शक्तिसम्पन्न हैं, उनसे मैं (हुवे) परमात्मा का साक्षात्कार करता हूँ ॥७॥
भावार्थ
ज्ञानयोगी और कर्मयोगी पुरुष जैसा परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है, इस प्रकार अन्य कोई भी नहीं कर सकता, क्योंकि कर्म द्वारा मनुष्य शक्ति बढ़ा कर ईश्वर की दया का पात्र बनता है और ज्ञान द्वारा उसका साक्षात्कार करता है। इसी अभिप्राय से “नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा वृणुते तनूं स्वाम्” कठ. २।२३ ॥ अर्थात् बहुत पढ़ने-पढ़ाने से परमात्मा का साक्षात्कार नहीं होता, किन्तु जब पुरुष सत्कर्मी बनकर अपने आपको ईश्वर के ज्ञान का पात्र बनाता है, तो वह उसको लाभ करता है। पात्र से तात्पर्य यहाँ अधिकारी का है। वह अधिकारी ज्ञान तथा कर्म दोनों से उत्पन्न होता है, केवल ज्ञान से नहीं, इसका नाम समसमुच्चय है अर्थात् ज्ञानयोग तथा कर्मयोग दोनों साधनों से सम्पन्न होने पर जिज्ञासु परमात्मा का लाभ करता है, अन्यथा नहीं ॥ जिन लोगों ने क्रमसमुच्चय मानकर केवल ज्ञान की ही मुख्यता सिद्ध की है, उनके मत में वेद का कोई प्रमाण ऐसा नहीं मिलता, जो कर्म से ज्ञान को बड़ा व मुख्य सिद्ध करे, क्योंकि “कुर्वन्नेवेह कर्माणि” यजुः ४०।२ इत्यादि मन्त्रों में कर्म का वर्णन यावदायुष कर्तव्यत्वेन वर्णन किया है और जो “तमेव विदित्वाति मृत्युमेति” यजुः ३१।१८। इस प्रमाण को देकर कर्म की मुख्यता का खण्डन करते हैं, सो ठीक नहीं, क्योंकि इसमें भी विदित्वा और एति ये दोनों क्रिया हैं अर्थात् उसको जानकर प्राप्त होते हैं, ये भी दोनों क्रिया हैं, इससे सिद्ध है कि जानना भी एक प्रकार की क्रिया ही है, इसलिये ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम् ऐसी व्युत्पत्ति करने पर ज्ञान भी एक कर्म की विशेष अवस्था ही सिद्ध होता है, कुछ भिन्न वस्तु नहीं। इसी अभिप्राय से “न तस्य कार्य्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते। परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च” श्वे. ६।८। इत्यादि उपनिषद् वाक्यों में क्रिया की प्रधानता पाई जाती है, क्योंकि “ज्ञानबलाभ्यां सहिता क्रिया ज्ञानबलक्रिया” है और व्याकरण का सामान्य नियम ये पाया जाता है कि अप्रधान में तृतीया होती है और ज्ञानबल में तृतीया है, इसलिये क्रिया से उक्त वाक्य में कर्मप्रधानता पाई जाती है। अथवा यों कहो कि “एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति” सांख्ययोग अर्थात् ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों सूक्ष्म विचार करने में एक ही है अर्थात् अवबोधात्मक कर्म का नाम ज्ञान है और केवल अनुष्ठानात्मक कर्म का नाम कर्म है और जो मुक्ति का साक्षात् साधन अवबोधात्मक कर्म है, इसलिये वहाँ भी ज्ञान कर्म का समुच्चय है अर्थात् मिलाप है, दोनों मिलकर ही मुक्ति के साधन हैं, एक नहीं ॥७॥
विषय
दैव्या होतारा
पदार्थ
[१] शरीर में प्राणापान 'दैव्य होता' कहलाते हैं । उस प्रभु से स्थापित होने से ये दैव्य हैं, शरीर यज्ञ के चलानेवाले ये होता हैं। शरीर में सब शक्तियों को स्थापित करनेवाले ये ही हैं। इन (उभा देवा) = दोनों शरीर के सब व्यवहारों के साधक, नृचक्षसा मनुष्यों का ध्यान करनेवाले दैव्या (होतारा) = प्राणापानों को हुवे मैं पुकारता हूँ। इनकी आराधना करता हूँ, प्राणायाम का अभ्यास ही तो इनकी आराधना है । [२] इनकी आराधना से शरीर में ऊर्ध्वगतिवाला सोम (पवमानः) = हमारे जीवन को पवित्र करता है। यह (इन्द्रः) = हमें परमैश्वर्यवाला बनाता है। (वृषा) = शक्तिशाली होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणापान 'दैव्य होता' हैं। उनकी साधना से शरीर में ऊर्ध्वगतिवाला सोम हमें पवित्र व शक्तिशाली बनाता है ।
विषय
राजा का वैश्य वर्ग को अपनाना
भावार्थ
(पवमानः इन्द्रः) अभिषेक योग्य, ऐश्वर्यवान् (वृषा) बलवान् पुरुष, (उभा देवा) दोनों तेजस्वी, (नृ-चक्षसा) मनुष्यों के द्रष्टा,(दैव्या) देवों के हितैषी (होतारा) दानशील धन-कुबेर और ज्ञान-सागर दोनों विद्वान् और व्यवहारकुशल ब्राह्मण और वैश्य वर्गों को (हुवे) स्वीकार करे, आदर से सत्कार करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवता वा ऋषिः। आप्रियो देवता ॥ छन्द:-- १, २, ४-६ गायत्री। ३, ७ निचृद गायत्री। ८ निचृदनुष्टुप्। ९, १० अनुष्टुप्। ११ विराडनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, generous lord and giver of glory and excellence, and Pavamana, lord giver of peace, piety and purity, both refulgent manifestations of supreme divinity, relentless guardians of humanity, divine high priests of the yajna of creation and showers of grace, I invoke and pray and worship.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्ञानयोगी व कर्मयोगी पुरुष जसा परमेश्वराचा साक्षात्कार करू शकतो, त्या प्रकारे दुसरा कोणीही करू शकत नाही. कारण कर्माद्वारे माणूस शक्ती वाढवून ईश्वराच्या दयेचा पात्र बनतो व ज्ञानाद्वारे त्याचा साक्षात्कार करतो. याच अभिप्रायाने ‘‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा वृणुते तनुं स्वाम’’ कठ. २।२३ अर्थात् खूप पठण पाठणाने परमेश्वराचा साक्षात्कार होत नाही; परंतु जेव्हा पुरुष सत्कर्मी बनून स्वत:ला ईश्वराच्या ज्ञानाचे पात्र बनवितो तेव्हा त्याला त्याचा लाभ होतो. पात्र याचा अर्थ येथे अधिकारी असा आहे व तो अधिकार ज्ञान व कर्म दोन्हीनी उत्पन्न होतो. केवळ ज्ञानाने नाही याचे नाव समसमुच्चय आहे. अर्थात ज्ञानयोग व कर्मयोग दोन्ही साधनांनी संपन्न झाल्यावर जिज्ञासूला परमात्म्याचा लाभ होतो. अन्यथा नाही.
टिप्पणी
ज्या लोकांनी क्रमसमुच्चय मानून केवळ ज्ञानच मुख्य सिद्ध केलेले आहे, त्यांच्या मतानुसार वेदात असे कोणतेही प्रमाण मिळत नाही. जे कर्मापेक्षा ज्ञान मोठे व मुख्य आहे हे सिद्ध करू शकेल. कारण ‘‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि’’ यजु. ४०-२ इत्यादी मंत्रात कर्माचे वर्णन यावदायुष्य कर्त्तव्यत्वेन वर्णन केलेले आहे व जे ‘‘तमेव विदित्वाति मृत्युमेति’’ यजु. ३१।१४ हे प्रमाण देत कर्माच्या प्रमुखतेचे खंडन करतात हे ठीक नाही. कारण यात ही विदित्वा वा एति या दोन्ही क्रिया आहेत. यावरून हे सिद्ध होते की जाणणे ही एक प्रकारची क्रियाच आहे. त्यासाठी ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम् अशी व्युत्पत्ती केल्यावर ज्ञान ही एका कर्माची विशेष अवस्थाच सिद्ध होते दुसरी भिन्न वस्तु नाही. या दृष्टीनेच ‘‘न तस्य कार्य कारणंच विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते । परास्य शक्ति र्विविधैव श्रयते स्वाभाविकी ज्ञानबल क्रियाच’’ श्वे. ६।८ इत्यादी उपनिषद वाक्यात क्रियेचे प्राधान्य दिसून येते. कारण ‘‘ज्ञानबलाभ्यां सहिता क्रिया ज्ञानबलक्रिया’’ अर्थात ज्ञान व बलसहित जी क्रिया आहे त्याचे नाव ज्ञानबल क्रिया आहे व व्याकरणाचा सामान्य नियम हा दिसून येतो की अप्रधानामध्ये तृतीया असते व ज्ञानबलामध्ये तृतीया आहे. त्यासाठी क्रियेने वरील वाक्यात कर्माची प्रधानता दिसून येते किंवा ‘‘एकं सांख्यंच योगंच य पश्चति स पश्यति’’ सांख्ययोग अर्थात ज्ञानयोग व कर्मयोग दोन्हींचा सूक्ष्म विचार केल्यावर एकच आहेत अर्थात अवबोधात्मक कर्माचे नाव ज्ञान आहे व केवळ अनुष्ठानात्मक कर्माचे नाव कर्म आहे व जे मुक्तीचे साक्षात साधन अवबोधात्मक कर्म आहे त्यासाठी तेथेही ज्ञानकर्माचा समुच्चय आहे अर्थात मिलाफ आहे. दोन्ही मिळूनच मुक्तीची साधने आहेत, एक नाही. ॥७॥
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