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ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 60/ मन्त्र 4
इन्द्र॑स्य सोम॒ राध॑से॒ शं प॑वस्व विचर्षणे । प्र॒जाव॒द्रेत॒ आ भ॑र ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य । सो॒म॒ । राध॑से । शम् । प॒व॒स्व॒ । वि॒ऽच॒र्ष॒णे॒ । प्र॒जाऽव॑त् । रेतः॑ । आ । भ॒र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्य सोम राधसे शं पवस्व विचर्षणे । प्रजावद्रेत आ भर ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य । सोम । राधसे । शम् । पवस्व । विऽचर्षणे । प्रजाऽवत् । रेतः । आ । भर ॥ ९.६०.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 60; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
विषय - missing
भावार्थ -
हे (सोम) शास्तः ! हे (विचर्षणे) विश्व के द्रष्टा ! अध्यक्ष ! (इन्द्रस्य राधसे) अन्न दाता, भूमि को जोतने वाले प्रजा जन के ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये (शं पवस्व) शान्ति की स्थापना कर और (प्रजावत् रेतः) प्रजायुक्त वीर्य के समान प्रजा की वृद्धि करने वाले बल को (आ भर) धारण कर। तेरा तेजस्वी बल भी प्रजा का नाश न करके उसकी वृद्धि करे। इति सप्तदशो वर्गः॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः॥
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अवत्सार ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ४ गायत्री। ३ निचृदुष्णिक्॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
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