अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
सूक्त - उषा,दुःस्वप्ननासन
देवता - द्विपदा साम्नी बृहती
छन्दः - यम
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
ते॒ऽमुष्मै॒परा॑ वहन्त्व॒राया॑न्दु॒र्णाम्नः॑ स॒दान्वाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठते । अ॒मुष्मै॑ । परा॑ । व॒ह॒न्तु॒ । अ॒राया॑न् । दु॒:ऽनाम्न॑:। स॒दान्वा॑: ॥६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
तेऽमुष्मैपरा वहन्त्वरायान्दुर्णाम्नः सदान्वाः ॥
स्वर रहित पद पाठते । अमुष्मै । परा । वहन्तु । अरायान् । दु:ऽनाम्न:। सदान्वा: ॥६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 6; मन्त्र » 7
विषय - अन्तिम विजय, शान्ति, शत्रुशमन।
भावार्थ -
(देवी) प्रकाश वाली (उषा) उषा, (वाचा) वाक् वेदवाणी से (संविदाना) संगत हो, और (वाग् देवी) ज्ञान के प्रकाश से युक्तवाणी (उषसा) पापदाहक उषा से (सं विदाना) संग लाभ करती हो। (उषस्पतिः) उषा का पालक सूर्य (वाचः पतिना) वाणी के स्वामी विद्वान्, या परमेश्वर के साथ (संविदानः) संगति लाभ करे और (वाचः पतिः) वाणी का स्वामी विद्वान् (उषः पतिना सं विदानः) उषा के स्वामी सूर्य के साथ संगति लाभ करता हो। अर्थात् उषा के समान वाणी और वाणी के समान उषा है। वाक्पति परमेश्वर के समान सूर्य और सूर्य के समान परमेश्वर प्रकाशस्वरुप और ज्ञानस्वरुप है। (ते) वे सब (अमुष्मै) शत्रु को (अरायान्) धन, ऐश्वर्यो से रहित (दुर्नाम्नः) बुरे नाम वाले (सदान्वाः) सदा कष्टकारी विपत्तियां (परावहन्तु) प्राप्त करावें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यम ऋषिः। दुःस्वप्ननाशन उषा च देवता, १-४ प्राजापत्यानुष्टुभः, साम्नीपंक्ति, ६ निचृद् आर्ची बृहती, ७ द्विपदा साम्नी बृहती, ८ आसुरी जगती, ९ आसुरी, १० आर्ची उष्णिक, ११ त्रिपदा यवमध्या गायत्री वार्ष्यनुष्टुप्। एकादशर्चं षष्ठं पर्याय सूक्तम्।
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