Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 16 > सूक्त 6

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
    सूक्त - उषा,दुःस्वप्ननासन देवता - आसुरी जगती छन्दः - यम सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त

    कु॒म्भीका॑दू॒षीकाः॒ पीय॑कान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कु॒म्भीका॑: । दू॒षीका॑: । पीय॑कान् ॥६.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुम्भीकादूषीकाः पीयकान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कुम्भीका: । दूषीका: । पीयकान् ॥६.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 6; मन्त्र » 8

    भावार्थ -
    वाणी उषा और उनके पालक लोग (कुम्भीकाः) कुम्भीक, घड़े के समान पेट बढ़ा देने वाली जलोदर आदि, (दूषिकाः) शरीर में विषका दोष उत्पन्न करने वाली और (पीयकान्) प्रारण हिंसा करने वाली व्याधियों और रोगों को और (जाग्रद्-दुष्वप्न्यम्) जागते समय के दुस्वप्न होने और (स्वप्ने दुष्वप्न्यम्) सोते समय में दुस्वप्न होने, और (वरान् अनागमिष्यतः) भविष्यत् में कभी न आने वाले उत्तम एैश्वर्य, अर्थात् उत्तम एैश्वर्यों के भविष्यत् में न आने के कष्टों को (अवित्तेः संकल्पान्) द्रव्य लाभ न होने या दरिद्रता से उठे नाना संकल्प और (अमुच्याः) कभी न छूटने वाले (द्रुहः) परस्पर के कलहों के (पाशान्) पाशों को हे (अग्ने) अग्ने, शत्रुभयदायक ! राजन् ! प्रभो ! (देवाः) विद्वान् लोग (तत्) उन सब कष्टदायी बातों को (अमुष्मै) उस शत्रु के पास (परावहन्तु) पहुंचावें। (यथा) जिससे वह शत्रुजन (वध्रिः) निर्वीर्य, बधिया (विशुरः साधुः न) तकलीफ़ में पड़े भले श्रादमी के समान (असत्) हो जाय।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यम ऋषिः। दुःस्वप्ननाशन उषा च देवता, १-४ प्राजापत्यानुष्टुभः, साम्नीपंक्ति, ६ निचृद् आर्ची बृहती, ७ द्विपदा साम्नी बृहती, ८ आसुरी जगती, ९ आसुरी, १० आर्ची उष्णिक, ११ त्रिपदा यवमध्या गायत्री वार्ष्यनुष्टुप्। एकादशर्चं षष्ठं पर्याय सूक्तम्।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top