अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 13/ मन्त्र 7
अ॒भि गो॒त्राणि॒ सह॑सा॒ गाह॑मानोऽदा॒य उ॒ग्रः श॒तम॑न्यु॒रिन्द्रः॑। दु॑श्च्यव॒नः पृ॑तना॒षाड॑यो॒ध्यो॒ऽस्माकं॒ सेना॑ अवतु॒ प्र यु॒त्सु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि। गो॒त्राणि॑। सह॑सा। गाह॑मानः। अ॒दा॒यः। उ॒ग्रः। श॒तऽम॑न्युः। इन्द्रः॑। दुः॒ऽच्य॒व॒नः। पृ॒त॒ना॒षाट्। अ॒यो॒ध्यः॑। अ॒स्माक॑म्। सेनाः॑। अ॒व॒तु॒। प्र। यु॒त्ऽसु ॥१३.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि गोत्राणि सहसा गाहमानोऽदाय उग्रः शतमन्युरिन्द्रः। दुश्च्यवनः पृतनाषाडयोध्योऽस्माकं सेना अवतु प्र युत्सु ॥
स्वर रहित पद पाठअभि। गोत्राणि। सहसा। गाहमानः। अदायः। उग्रः। शतऽमन्युः। इन्द्रः। दुःऽच्यवनः। पृतनाषाट्। अयोध्यः। अस्माकम्। सेनाः। अवतु। प्र। युत्ऽसु ॥१३.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 13; मन्त्र » 7
विषय - इन्द्र, राजा और सेनापति का वर्णन।
भावार्थ -
(गोत्राणि) गौ=पृथिवी को पालन करने वाले, राष्ट्रों को (सहसा) अपने बल से (अभिगाहमानः) अपने आक्रमण से पार करता हुआ (अदायः) शत्रुओं पर निर्दय (उग्रः) अति भयंकर (शतमन्युः) सैकड़ों शत्रुओं को अपने बाहुबल से स्तम्भन करने वाला (दुश्च्यवनः) बड़ी कठिनता से संग्राम से उखड़ने हारा, अविचल (पृतनाषाड्) शत्रुसेना का पराजय करने में समर्थ (अयोध्यः) युद्ध में अजेय (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा (अस्माकम्) हमारी (सेनाः) सेनाओं को (युत्सु) युद्धों में (प्रभवतु) अच्छी प्रकार सुरक्षित रक्खे।
टिप्पणी -
(द्वि०) ‘अदय उग्रः’ इति पदपाठः। ऋ० साम० यजु०। (तृ०) ‘अयुध्यः’ इति मै० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अप्रतिरथ ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें