अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 18/ मन्त्र 6
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - आर्च्यनुष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
अ॒पस्त ओष॑धीमतीरृच्छन्तु। ये मा॑ऽघा॒यव॑ ए॒तस्या॑ दि॒शोऽभि॒दासा॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पः। ते। ओष॑धीऽमतीः। ऋ॒च्छ॒न्तु॒। ये। मा॒। अ॒घ॒ऽयवः॑। ए॒तस्याः॑। दि॒शः। अ॒भि॒ऽदासा॑त् ॥१८.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अपस्त ओषधीमतीरृच्छन्तु। ये माऽघायव एतस्या दिशोऽभिदासात् ॥
स्वर रहित पद पाठअपः। ते। ओषधीऽमतीः। ऋच्छन्तु। ये। मा। अघऽयवः। एतस्याः। दिशः। अभिऽदासात् ॥१८.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 18; मन्त्र » 6
विषय - रक्षा की प्रार्थना।
भावार्थ -
(ये मा अघायवः प्रतीच्या दिशः अभिदासात्) जो मेरे द्रोही, मुझपर प्रतीची, पश्चिम दिशा से आक्रमण करें (ते) वे (द्यावापृथिवी वन्तम् सूर्यम्) आकाश और पृथिवी पर वश करने वाले सूर्य के समान, आकाश और पृथिवीके स्वामी, तेजस्वी, ‘सूर्य’ नाम अधिकारी को (ऋच्छन्तु) प्राप्त होकर नष्ट हो जांय। (ये मा अधाय० इत्यादि) और वे उसी दिशा से आक्रमण करने वाले (ओषधिमतीः आपः प्राप्य ऋच्छन्तु) ओषधियों से समृद्ध जलों के समान सर्वरोग और कष्ट दूर करने में समर्थ पुरुषों को प्राप्त होकर नष्ट हो जांय।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवताः। १, ८ साम्न्यौ त्रिष्टुभौ, २-६ आर्ष्यनुटुभौ। ५ सम्राड्=स्वराड्। ७, ९, १०, प्राजापत्यास्त्रिष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्॥
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