अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - आर्च्यनुष्टुप्
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
वरु॑णं॒ त आ॑दि॒त्यव॑न्तमृच्छन्तु। ये मा॑ऽघा॒यव॑ ए॒तस्या॑ दि॒शोऽभि॒दासा॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठवरु॑णम्। ते। आ॒दि॒त्यऽव॑न्तम्। ऋ॒च्छ॒न्तु॒। ये। मा॒। अ॒घ॒ऽयवः॑। ए॒तस्याः॑। दि॒शः। अ॒भि॒ऽदासा॑त् ॥१८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
वरुणं त आदित्यवन्तमृच्छन्तु। ये माऽघायव एतस्या दिशोऽभिदासात् ॥
स्वर रहित पद पाठवरुणम्। ते। आदित्यऽवन्तम्। ऋच्छन्तु। ये। मा। अघऽयवः। एतस्याः। दिशः। अभिऽदासात् ॥१८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 18; मन्त्र » 4
विषय - रक्षा की प्रार्थना।
भावार्थ -
(ये मा अघायवः दक्षिणायाः दिश अभिदासात्) जो मेरे द्रोही दक्षिण दिशा से, या दायें से आक्रमण करें (ते) वे (रुद्रवन्तंसोमम्) रोदनकारी योद्धाओं के स्वामी सोम, उनके प्रेरक राजा को प्राप्त होकर (ऋच्छन्तु) विनाश को प्राप्त हों।
इसी प्रकार (ये मा अघयव इत्यादि) वे उसी दिशा के आक्रमक लोग (आदित्यवन्तम् वरुणम्) आदित्य के समान तेजस्वी, चमचमाते अग्निमय अस्त्रों के स्वामी, (वरुणं) शत्रुवारक, वरुण नाम सेनापति को प्राप्त होकर (ऋच्छन्तु) नष्ट हो जांय।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवताः। १, ८ साम्न्यौ त्रिष्टुभौ, २-६ आर्ष्यनुटुभौ। ५ सम्राड्=स्वराड्। ७, ९, १०, प्राजापत्यास्त्रिष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्॥
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