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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 27/ मन्त्र 7
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिवृत् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त

    प्रा॒णेना॒ग्निं सं सृ॑जति॒ वातः॑ प्रा॒णेन॒ संहि॑तः। प्रा॒णेन॑ वि॒श्वतो॑मुखं॒ सूर्यं॑ दे॒वा अ॑जनयन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒णेन॑। अ॒ग्निम्। सम्। सृ॒ज॒ति॒। वातः॑। प्रा॒णेन॑। सम्ऽहि॑तः। प्रा॒णेन॑। वि॒श्वतः॑ऽमुखम्। सूर्य॑म्। दे॒वाः। अ॒ज॒न॒य॒न् ॥२७.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राणेनाग्निं सं सृजति वातः प्राणेन संहितः। प्राणेन विश्वतोमुखं सूर्यं देवा अजनयन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्राणेन। अग्निम्। सम्। सृजति। वातः। प्राणेन। सम्ऽहितः। प्राणेन। विश्वतःऽमुखम्। सूर्यम्। देवाः। अजनयन् ॥२७.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 27; मन्त्र » 7

    भावार्थ -
    जिस प्रकार मनुष्य (प्राणेन) अपने प्राण वायु से या फूंक से (अग्निम्) अग्नि को या आाग को (संसृजति) उत्पन्न करता है, क्योंकि (वातः) यह बाह्य वायु ही (प्राणेन) शरीरगत प्राण के साथ (संहितः) सम्बद्ध रहता है, ठीक इसी प्रकार (देवाः) देव दिव्य पदार्थ भी (विश्वतो मुखम्) सब ओर प्रकाशमान सूर्य को (प्राणेन) प्रकृष्ट महा वायु या महान् चैतन्य के बल से (अजनयन्) दीप्त रूप में प्रकट कर रहे हैं। अथवा जिस प्रकार इस देहपिण्ड में (प्राणेन अग्निम् संसृजति) मनुष्य अपने प्राण से अपनी जाठराग्नि को उत्पन्न करता है और बाह्य वायु उस प्राण से जुड़ा है, इसी प्रकार (देवाः) दिव्य पदार्थ भी (विश्वतो मुखं) सब ओर प्रकाशित सूर्य को (प्राणेन) उस महान् जीवनप्रद शक्ति से उत्पन्न करते हैं और सूर्योत्पादक बल उस महान् परमेश्वरी शक्ति से जुड़ा है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृग्वगिरा ऋषिः। त्रिवृद् उत चन्द्रमा देवता। ३, ९ त्रिष्टुभौ। १० जगती। ११ आर्ची उष्णिक्। १२ आर्च्यनुष्टुप्। १३ साम्नी त्रिष्टुप् (११-१३ एकावसानाः)। शेषाः अनुष्टुभः।

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