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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 27/ मन्त्र 14
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिवृत् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त

    अ॑सप॒त्नं पु॒रस्ता॑त्प॒श्चान्नो॒ अभ॑यं कृतम्। स॑वि॒ता मा॑ दक्षिण॒त उ॑त्त॒रान्मा॑ शची॒पतिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स॒प॒त्नम्। पु॒रस्ता॑त्। प॒श्चात्। नः॒। अभ॑यम्। कृ॒त॒म्। स॒वि॒ता। मा॒। द॒क्षि॒ण॒तः। उ॒त्त॒रात्। मा॒। शची॒ऽपतिः॑ ॥२७.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असपत्नं पुरस्तात्पश्चान्नो अभयं कृतम्। सविता मा दक्षिणत उत्तरान्मा शचीपतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असपत्नम्। पुरस्तात्। पश्चात्। नः। अभयम्। कृतम्। सविता। मा। दक्षिणतः। उत्तरात्। मा। शचीऽपतिः ॥२७.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 27; मन्त्र » 14

    भावार्थ -
    (नः) हमारे (पुरस्तात्) आगे और (पश्चात्) पीछे से भी (असपत्नम्) शत्रुओं से रहित (अभयम्) अभय (कृतम्) बना रहे। (मा दक्षिणतः) मेरे दायें तरफ़ (सविता) सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक राजा और (आ उत्तरात्) मेरे उत्तर या बायें तरफ़ (शचीपतिः) शची, शक्तिवाली सेना का स्वामी, सेनापति रहे, दोनों मेरे दोनों ओर से रक्षा करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृग्वगिरा ऋषिः। त्रिवृद् उत चन्द्रमा देवता। ३, ९ त्रिष्टुभौ। १० जगती। ११ आर्ची उष्णिक्। १२ आर्च्यनुष्टुप्। १३ साम्नी त्रिष्टुप् (११-१३ एकावसानाः)। शेषाः अनुष्टुभः।

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