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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - दर्भमणिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दर्भमणि सूक्त

    श॒तं ते॑ दर्भ॒ वर्मा॑णि स॒हस्रं॑ वी॒र्याणि ते। तम॒स्मै विश्वे॒ त्वां दे॑वा ज॒रसे॒ भर्त॒वा अ॑दुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तम्। ते॒। द॒र्भ॒। वर्मा॑णि। स॒हस्र॑म्। वी॒र्या᳡णि। ते॒। तम्। अ॒स्मै। विश्वे॑। त्वाम्। दे॒वाः। ज॒रसे॑। भर्त॒वै। अ॒दुः॒ ॥३०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतं ते दर्भ वर्माणि सहस्रं वीर्याणि ते। तमस्मै विश्वे त्वां देवा जरसे भर्तवा अदुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतम्। ते। दर्भ। वर्माणि। सहस्रम्। वीर्याणि। ते। तम्। अस्मै। विश्वे। त्वाम्। देवाः। जरसे। भर्तवै। अदुः ॥३०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 30; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (दर्भ) शत्रुनाशक सेनापते ! (ते वर्माणि शतम्) तेरे सैकड़ों वर्म, रक्षा साधन हैं। (ते वर्माणि सहस्रम्) तेरे वीर्य सामर्थ्य भी सहस्रों हैं। इसीलिये (विश्वे देवाः) समस्त देव, विद्वान् पुरुष (तं) उस (त्वां) तुझ वीर्यवान् पुरुष को (अस्मै) राजा की (जरसे) जरा, वृद्धावस्था तक (भर्त्तवे) भरण पोषण के निमित्त (अदुः) सौंपते हैं, प्रदान करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सपत्नक्षयकामो ब्रह्मा ऋषिः। दर्भो देवता। अनुष्टुभः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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