अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 30/ मन्त्र 4
स॑पत्न॒क्षय॑णं दर्भ द्विष॒तस्तप॑नं हृ॒दः। म॒णिं क्ष॒त्रस्य॒ वर्ध॑नं तनू॒पानं॑ कृणोमि ते ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प॒त्न॒ऽक्षय॑णम्। द॒र्भ॒। द्वि॒ष॒तः। तप॑नम्। हृ॒दः। म॒णिम्। क्ष॒त्रस्य॑। वर्ध॑नम्। त॒नू॒ऽपान॑म्। कृ॒णो॒मि॒। ते॒ ॥३०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
सपत्नक्षयणं दर्भ द्विषतस्तपनं हृदः। मणिं क्षत्रस्य वर्धनं तनूपानं कृणोमि ते ॥
स्वर रहित पद पाठसपत्नऽक्षयणम्। दर्भ। द्विषतः। तपनम्। हृदः। मणिम्। क्षत्रस्य। वर्धनम्। तनूऽपानम्। कृणोमि। ते ॥३०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 30; मन्त्र » 4
विषय - शत्रु का उच्छेदन।
भावार्थ -
हे (दर्भ) शत्रुओं को नाश करने वाले पुरुष ! (द्विषतः) शत्रु के (हृदः) हृदय को (तपनम्) तपाने और (सपत्नक्षयणम्) शत्रु का क्षय करने वाले और (क्षत्रस्य वर्धनं) क्षत्रियों के क्षात्र-बल को बढ़ाने वाले तुझ (मणिम्) शिरोमणि पुरुष को हे राजन् ! (ते) तेरे (तनूपानं) शरीर की रक्षा करने वाला (कृणोमि) नियत करता हूं।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सपत्नक्षयकामो ब्रह्मा ऋषिः। दर्भो देवता। अनुष्टुभः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें