अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 30/ मन्त्र 3
त्वामा॑हुर्देव॒वर्म॒ त्वां द॑र्भ॒ ब्रह्म॑ण॒स्पति॑म्। त्वामिन्द्र॑स्याहु॒र्वर्म॒ त्वं रा॒ष्ट्राणि॑ रक्षसि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम्। आ॒हुः॒। दे॒व॒ऽवर्म॑। त्वाम्। द॒र्भ॒। ब्रह्म॑णः। पति॑म्। त्वाम्। इन्द्र॑स्य। आ॒हुः॒। वर्म॑। त्वम्। रा॒ष्ट्राणि॑। र॒क्ष॒सि॒ ॥३०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामाहुर्देववर्म त्वां दर्भ ब्रह्मणस्पतिम्। त्वामिन्द्रस्याहुर्वर्म त्वं राष्ट्राणि रक्षसि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। आहुः। देवऽवर्म। त्वाम्। दर्भ। ब्रह्मणः। पतिम्। त्वाम्। इन्द्रस्य। आहुः। वर्म। त्वम्। राष्ट्राणि। रक्षसि ॥३०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 30; मन्त्र » 3
विषय - शत्रु का उच्छेदन।
भावार्थ -
हे (दर्भ) शत्रुहिंसक पुरुष (त्वां) तुझको (देववर्म आहुः) देव राजा और विद्वानों को वर्म रक्षक कवच के समान कहते हैं। और (त्वा) तुझे (ब्रह्मणः पतिम्) ब्रह्म वेद का या विशाल राष्ट्र का रक्षक पालक कहते हैं। (त्वाम्) तुझको (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवान् राजा या धनवान् समृद्ध राष्ट्र का (वर्म आहुः) रक्षक कवच कहते हैं। क्योंकि (त्वं) तू तो (राष्ट्राणि) राष्ट्रों की (रक्षसि) रक्षा करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सपत्नक्षयकामो ब्रह्मा ऋषिः। दर्भो देवता। अनुष्टुभः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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