अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 48/ मन्त्र 5
ये रात्रि॑मनु॒तिष्ठ॑न्ति॒ ये च॑ भू॒तेषु॒ जाग्र॑ति। प॒शून्ये सर्वा॒न्रक्ष॑न्ति॒ ते न॑ आ॒त्मसु॑ जाग्रति॒ ते नः॑ प॒शुषु॑ जाग्रति ॥
स्वर सहित पद पाठये। रात्रि॑म्। अ॒नु॒ऽतिष्ठ॑न्ति। ये। च॒। भू॒तेषु॑। जाग्र॑ति। प॒शून्। ये। सर्वा॑न्। रक्ष॑न्ति। ते। नः॒। आ॒त्मऽसु॑। जा॒ग्र॒ति॒। ते। नः॒। प॒शुषु॑। जा॒ग्र॒ति॒ ॥४८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
ये रात्रिमनुतिष्ठन्ति ये च भूतेषु जाग्रति। पशून्ये सर्वान्रक्षन्ति ते न आत्मसु जाग्रति ते नः पशुषु जाग्रति ॥
स्वर रहित पद पाठये। रात्रिम्। अनुऽतिष्ठन्ति। ये। च। भूतेषु। जाग्रति। पशून्। ये। सर्वान्। रक्षन्ति। ते। नः। आत्मऽसु। जाग्रति। ते। नः। पशुषु। जाग्रति ॥४८.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 48; मन्त्र » 5
विषय - राष्ट्रशक्ति रूप ‘रात्रि’।
भावार्थ -
(ये) जो (रात्रिम्) रात्रि, उस सुखप्रद और दुष्टों को दण्ड देने वाली व्यवस्था को या सर्वोपरि राजमान् राष्ट्री शक्ति को (अनुतिष्ठन्ति) ठीक प्रकार से चलाते हैं और (ये) जो (भूतेषु) समस्त भूतों और प्राणियों में (जाग्रति) जागते हैं, सदा सावधान रहते हैं। और (ये) जो (सर्वान्) समस्त (पशून्) पशुओं की (रक्षन्ति) रक्षा करते हैं (ते) वे सब व्यवस्थापक राज्य कार्यों को चलाने हारे पुरुष (नः आत्मसु) हमारे शरीरों पर भी उनकी रक्षा के निमित्त सावधान (जाग्रति) जागते हैं। और (ते) वे (नः) हमारे (पशुषु) पशुओं के रक्षा-कार्य में भी (जाग्रति) सावधान होकर रहते हैं। व्यापक ईश्वरीय शक्ति के पक्ष में भी स्पष्ट है।
टिप्पणी -
‘जाग्रतु’ इति ह्विटनिदशितः। (द्वि०) ‘येषु भूतेषु’ (च० पं०) तेन त्वमसि जाग्रतु ते नः पशुभिर्जाग्रतु’। इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोपथ ऋषिः। रात्रिर्देवता। १ त्रिपदा आर्षी गायत्री। २ त्रिपदा विराड् अनुष्टुप। ३ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्। ५ पथ्यापंक्तिः। शेषाः अनुष्टुभः। षडृचं सूक्तम्।
इस भाष्य को एडिट करें