अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 48/ मन्त्र 1
सूक्त - गोपथः
देवता - रात्रिः
छन्दः - त्रिपदार्षी गायत्री
सूक्तम् - रात्रि सूक्त
अथो॒ यानि॑ च॒ यस्मा॑ ह॒ यानि॑ चा॒न्तः प॑री॒णहि॑। तानि॑ ते॒ परि॑ दद्मसि ॥
स्वर सहित पद पाठअथो॒ इति॑। यानि॑। च॒। यस्मै॑। ह॒। यानि॑। च॑। अन्तः॑। प॒रि॒ऽणहि॑। तानि॑। ते॒। परि॑। द॒द्म॒सि॒ ॥४८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अथो यानि च यस्मा ह यानि चान्तः परीणहि। तानि ते परि दद्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठअथो इति। यानि। च। यस्मै। ह। यानि। च। अन्तः। परिऽणहि। तानि। ते। परि। दद्मसि ॥४८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 48; मन्त्र » 1
विषय - राष्ट्रशक्ति रूप ‘रात्रि’।
भावार्थ -
(अथो) और (यानि) जिन पदार्थों को हम [ चयामहे ] संग्रह करते हैं (यानि) जिन वस्तुओं को (अन्तः) भीतर (परि नहि) सब ओर से बन्द सन्दूक आदि में रखते हैं (तानि) उन सब धन, वस्त्र आदि को (ते) तेरे ही अधीन (परि दध्मसि) हम धारण करते हैं या (परि दध्मसि) तेरे अधीन, तेरी रक्षा में रखते हैं।
टिप्पणी -
(प्र०) ‘यानि च यस्मा आह’, ‘यानि च यस्मा अह’ ‘यानि च या महे’, ‘यानि याचा महे’ इति पाठभेदाः। ‘यानि चयामहे’ इति ह्विटनिसंशोधितः पाठः। ‘यानि। च। यस्मै ह-’ ‘यानि। च। यस्मै। आह।’ इति पदपाठ भेदौ। (द्वि०) ‘यानिवां तः परीणहि' इति बहुत्र। ‘या न इव। अन्नः’, ‘यानि। वा। अन्तः’ इति वा पाठभेदः। दद्मसि इति क्वचित्। ‘अथो यानि तमस्सहे यानि चान्तः परेणहि’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोपथ ऋषिः। रात्रिर्देवता। १ त्रिपदा आर्षी गायत्री। २ त्रिपदा विराड् अनुष्टुप। ३ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्। ५ पथ्यापंक्तिः। शेषाः अनुष्टुभः। षडृचं सूक्तम्।
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