Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 48

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 48/ मन्त्र 6
    सूक्त - गोपथः देवता - रात्रिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रात्रि सूक्त

    वेद॒ वै रा॑त्रि ते॒ नाम॑ घृ॒ताची॒ नाम॒ वा अ॑सि। तां त्वां भ॒रद्वा॑जो वेद॒ सा नो॑ वि॒त्तेऽधि॑ जाग्रति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वेद॑। वै। रा॒त्रि॒। ते॒। नाम॑। घृ॒ताची॑। नाम॑। वै। अ॒सि॒। ताम्। त्वाम्। भ॒रत्ऽवा॑जः। वे॒द॒। सा। नः॒। वि॒त्ते। अधि॑। जा॒ग्र॒ति॒ ॥४८.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेद वै रात्रि ते नाम घृताची नाम वा असि। तां त्वां भरद्वाजो वेद सा नो वित्तेऽधि जाग्रति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वेद। वै। रात्रि। ते। नाम। घृताची। नाम। वै। असि। ताम्। त्वाम्। भरत्ऽवाजः। वेद। सा। नः। वित्ते। अधि। जाग्रति ॥४८.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 48; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    हे (रात्रि) रात्रि ! समस्त जगत् को अपने भीतर लेने वाली सर्वोपरि विद्यमान शक्ते ! (ते नाम अहं वेद) तेरा नाम मैं जानता हूं कि तू (घृताची नाम) ‘घृताची’ नामक (असि) है। (भरद्वाजः) भरद्वाज, अन्न और बलों को धारण करने वाला (तां त्वाम्) उस तुझको (वेद) जानता या प्राप्त करता है। (सः) वह (नः) हमारे (वित्ते) समस्त प्राप्त करने योग्य पदार्थों पर (जाग्रति*) जागती है, सावधान होकर रहती है। सब की रक्षा करती और यथासमय प्राप्त कराती है। ‘घृताची’—घृ क्षरणदीप्त्योः (चुरादिः) गृ घृ सेचने (भ्वादिः) एताभ्यामौणादिकः कः। जिघर्त्ति सञ्चलति दीप्यते वा तद् घृतम्। उदकं सर्पिः प्रदीप्तं वा। इति दया०। सेचयत्यनेन भूमिं पर्जन्यः। क्षरति भेघात्। दीप्तं वा स्वेन तेजसा देवतात्वात् घृतमत्रावश्यायलक्षणं जलं तदञ्चति। अञ्चतेर्गत्यर्थात् क्विनि ङीपि, घृताची। इति देवराजः। घृत जल है। इससे मेघ पृथ्वी को सींचता है। या घृत तेज है अर्थात् वह परमात्मा की जलदात्री, जीवनदात्री, तेजोदात्री, मेघ, सूर्य, वायु रूप से प्राणप्रद शक्ति घृताची, रात्रि है। उसके तत्व को ‘भरद्वाज’ अन्नोत्पादक विद्वान् जानते हैं। अध्यात्म में—मनो वै भरद्वाजऋषिः। अन्नं वाजः। यो वै मनो विभर्त्ति सो अन्नं वाज विभर्त्ति। तस्मान्मनो भरद्वाज ऋषिः। मन भरद्वाज है। अन्न वाज है। वही शरीर में रहकर समस्त प्राणों को धारण करता है। वह आत्मा के घृताची शक्ति को जानता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोपथ ऋषिः। रात्रिर्देवता। १ त्रिपदा आर्षी गायत्री। २ त्रिपदा विराड् अनुष्टुप। ३ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्। ५ पथ्यापंक्तिः। शेषाः अनुष्टुभः। षडृचं सूक्तम्।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top