अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 50/ मन्त्र 4
यथा॑ शा॒म्याकः॑ प्र॒पत॑न्नप॒वान्नानु॑वि॒द्यते॑। ए॒वा रा॑त्रि॒ प्र पा॑तय॒ यो अ॒स्माँ अ॑भ्यघा॒यति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑। शा॒म्याकः॑। प्र॒ऽपत॑न्। अ॒प॒ऽवान्। न। अ॒नु॒ऽवि॒द्यते॑ ॥ ए॒व। रा॒त्रि॒। प्र। पा॒त॒य॒। यः। अ॒स्मान्। अ॒भि॒ऽअ॒घा॒यति॑ ॥५०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा शाम्याकः प्रपतन्नपवान्नानुविद्यते। एवा रात्रि प्र पातय यो अस्माँ अभ्यघायति ॥
स्वर रहित पद पाठयथा। शाम्याकः। प्रऽपतन्। अपऽवान्। न। अनुऽविद्यते ॥ एव। रात्रि। प्र। पातय। यः। अस्मान्। अभिऽअघायति ॥५०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 50; मन्त्र » 4
विषय - ‘रात्रि’ रूप राजशक्ति से दुष्ट दमन करने की प्रार्थना।
भावार्थ -
(यथा) जिस प्रकार (शान्याकः श्यामाकः*) श्यामाक या सांवा नामक धान (प्रपतन्) गिरकर (अपवान्) उड़ता उड़ता (न अनुविद्यते) फिर उसका कुछ पता नहीं चलता कि कहां है (एवा) उसी प्रकार, हे (रात्रि) दण्डदात्रि राजशक्ते ! (यः) जो (अस्मान् अभि) हम पर पापाचार, अत्याचार, घात या बलात्कार करना चाहता है उसको भी तू (प्र पातय) ऐसा गिराकर नष्ट करदे कि पता न चले।
टिप्पणी -
वर्णविपर्ययः। (प्र०) ‘प्रवतनपवान्नानु’, ‘प्रपवान्नानु-’, ‘प्रपतन्नपवांनानु’ इति नाना पाठाः। ‘श्याम्याक’, ‘श्यामाकः’ इति च क्वचित्। ‘प्रपतन्नपराम्’ इति ह्विटनिकामितः। (तृ०) ‘एता वा’ इति क्वचित्। (प्र० द्वि०) ‘सान्याकाः प्रपतन्तेरि व नानु-’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोपथभरद्वाजावृषी। रात्रिर्देवता। अनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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