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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 50

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 50/ मन्त्र 6
    सूक्त - गोपथः देवता - रात्रिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रात्रि सूक्त

    यद॒द्या रा॑त्रि सुभगे वि॒भज॒न्त्ययो॒ वसु॑। यदे॒तद॒स्मान्भोज॑य॒ यथेद॒न्यानु॒पाय॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। अ॒द्य। रा॒त्रि॒। सु॒ऽभ॒गे॒। वि॒ऽभज॑न्ति। अयः॑। वसु॑ ॥ यत्। ए॒तत्। अ॒स्मान्। भो॒ज॒य॒। यथा॑। इत्। अ॒न्यान्। उ॒प॒ऽअय॑सि ॥५०.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदद्या रात्रि सुभगे विभजन्त्ययो वसु। यदेतदस्मान्भोजय यथेदन्यानुपायसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। अद्य। रात्रि। सुऽभगे। विऽभजन्ति। अयः। वसु ॥ यत्। एतत्। अस्मान्। भोजय। यथा। इत्। अन्यान्। उपऽअयसि ॥५०.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 50; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    (यद्) हे (रात्रि) ऐश्वर्यवती ! राजशक्ते ! हे (सुभगे) उत्तम ऐश्वर्यवति ! तू (वसु) सुवर्ण आदि धनको (विभजन्ती) विनाश. करती हुई (आ अयः) हमें प्राप्त हो। (तत्) तब (अस्मान्) हमें (एतत्) उस धन को इस प्रकार (भोजय) उपभोग करा कि (यथा) जिस प्रकार वह (इत्) किसी प्रकार (अन्यान्) हमसे अतिरिक्त, हमारे शत्रुओं को (न उपायति) प्राप्त न हो। हम अपने ऐश्वर्य को ऐसे भोग करें कि उससे हमारे शत्रुगण लाभ न उठा सकें। हमारे भोग्य पदार्थों का नफ़ा शत्रुओं को न मिले।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोपथभरद्वाजावृषी। रात्रिर्देवता। अनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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