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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 56

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 56/ मन्त्र 3
    सूक्त - यमः देवता - दुःष्वप्ननाशनम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त

    बृ॑ह॒द्गावासु॑रे॒भ्योऽधि॑ दे॒वानुपा॑वर्तत महि॒मान॑मि॒च्छन्। तस्मै॒ स्वप्ना॑य दधु॒राधि॑पत्यं त्रयस्त्रिं॒शासः॒ स्वरानशा॒नाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृ॒ह॒त्ऽगावा॑। असु॑रेभ्यः। अधि॑। दे॒वान्। उप॑। अ॒व॒र्त॒त॒। म॒हि॒मान॑म् । इ॒च्छन्। तस्मै॑। स्वप्ना॑य। द॒धुः॒। आधि॑पत्यम्। त्र॒यः॒ऽत्रिं॒शासः॑। स्वः᳡। आ॒न॒शा॒नाः ॥५६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहद्गावासुरेभ्योऽधि देवानुपावर्तत महिमानमिच्छन्। तस्मै स्वप्नाय दधुराधिपत्यं त्रयस्त्रिंशासः स्वरानशानाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहत्ऽगावा। असुरेभ्यः। अधि। देवान्। उप। अवर्तत। महिमानम् । इच्छन्। तस्मै। स्वप्नाय। दधुः। आधिपत्यम्। त्रयःऽत्रिंशासः। स्वः। आनशानाः ॥५६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 56; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (बृहद्गावा) वह विशाल गति वाला या बड़ों बड़ों को भी प्राप्त होने वाला, स्वप्न, आलस्य, प्रमाद (असुरेभ्यः अधि) केवल प्राणों में रमण करने वाले विलासी पुरुषों से चलकर (देवान्) ज्ञानवान्, इन्द्रियों पर विजयशील, जितेन्द्रिय पुरुषों को भी मानो (महिमानम् इच्छन्) उनपर भी महत्व, अपना या प्रभुत्व चाहता हुआ (उप अवर्तत) प्राप्त होता है। वे (त्रयस्त्रिंशासः) तैंतीसों देवता जो (स्वः आनशानाः) सुखका या प्रकाश का भी भोग करते होते हैं वे भी (तस्मै) उस (स्वप्नाय) ‘स्वप्न’ वृत्ति को ही (आधिपत्यं) आधिपत्य प्रभुत्व (श्रादधुः) प्रदान करते हैं।। अर्थात् अध्यात्म में वह निद्रा कर्मेन्द्रियों की थकावट से उत्पन्न होकर देव अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों पर भी आ जाता है। शरीर के तैंतीसों तत्व सुख को भोग करते हुए स्वप्न के वश होजाते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यमऋषिः। दुःखनाशनो देवता। त्रिष्टुभः। षडृचं सूक्तम्॥

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